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________________ (३२०) कल्पतरुनां फल लावीने, जे जिनवर पूजे ॥ काल अनादि कर्म ते संचित, सत्ताथी धूजे॥आ० ॥ १ ॥ स्थावर तिरि निरयालय उग, इंगविगला लीजें ॥ सा धारण नवमे गुणगणे, धुरनागें बीजे॥आ॥२॥ केवल पामीने शिवगति पामी, शैलेशी टाणे ॥ चरम समय दोयमांहे स्वामी, अंतिम गुणगणे ॥ ॥ आ० ॥३॥बाकी नाम करमनी पयडी, सघली तिहां जावे ॥ अजर अमर निकलंक स्वरूपें, निःक ा थावे ॥ प्रा० ॥ ४ ॥ जे सिकेरी पडिमा पूजे, ते सिमय होवे ॥ नाई छोई निरमल चितें, आरी सो जोवे ॥ आ० ॥५॥ कर्मसूमण तप केरी पूजा, फल ते नर पावे ॥ श्रीशुन वीर स्वरूप विलोकी, शिववतु घर आवे ॥ प्रा० ॥ ६ ॥ इति ॥ ॥ अथ पार्शजिनस्तवनं ॥ ॥ पास जिणंद सदाशिव गामी, वालोजी अंतर जामी रे ॥ जगजीवन जिनजी ॥ मुहूरत ताहारी मो हनगारी, नवियणने हितकारी रे ॥ ज० ॥ १ ॥ वामा रे नंदन सांजलो स्वामी, अरज करुं शिर ना मी रे॥ ज० ॥ देव घणा में तो नयणे रे दीठा, तुमें घणु लागो बो मीठा रे ।। ज० ॥॥ में तो मनमां तुंहीज ध्यायो, रत्नचिंतामणि पायो रे ॥ ज० ॥रा त दिवस मुफ मनमांहे वसियो, हुंडं तुम गुण र सियो रे ॥ ज०॥३॥ महेर करीने साहेबा नजरें निहालो, तमें बो परम कपालो रे ॥ ज० ॥ गोडी रे
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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