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________________ (१७६) तो शी दरिसण वात हो ॥१॥१०॥नी ॥ प्र०॥ निरनय पद पाम्या पबी ॥ प्र० ॥ जाण्यं न हो। तेह हो ॥ तो नेह लागे पागले ॥प्र० ॥ अलगा ते निसनेह हो ॥२॥ प ने ॥ ॥ पद लेहतां तो सयुं विनु ॥ प्र० ॥ पण निज इव्य कहाय हो । अमें सुव्य सुगुण घाणु ! प्र० ॥ सहि तो तिणे सर माय हो ॥३॥०॥नि॥ प्रतिहां रह्यां करुणा नयणथी ॥ प्र० ॥ जोतां गुंउ थाय हो । जिहां तिहां जीत लावण्यता ।।प्र॥ दोहली दीपक न्याय हो ॥ ४ ॥ १० ॥ नि ॥ प्र० ॥ जो प्रनुता अमें पामता ॥ प्र० ॥ केह, निपट न पडे एम हो, जो देशो तो जाणुं अमें ॥ प्र० ॥ दरिसण दरिश्ता कम हो ॥ ५॥ ५० ॥ नि ॥ प्र० ॥ हाथे तो नावि शको प्र॥ न करो कोश्नो विश्वास हो ॥ पण जो लपीयें जो नक्तिथी ॥०॥ कहेजो तो शाबास हो । ॥६॥१०॥नि ॥प्र॥ कमल संबन कीधी मया ॥ प्र० ॥ गुनह करी बगसीस हो ॥ रूपविबुधना मो हन तगी ॥प्र० ॥ पूरजो सकल जगीस हो ॥ ७ ॥ प० ॥ नि ॥ प्र० ॥ इति । ॥अथ श्री सुपास जिन स्तवनं ॥ ॥ जीणा मारुजीनी करहलडी॥ए देशी॥ ॥ वाल्हामेह बपीयडा, अहिकुलने मृगकुलने ति म वलि नादें वाह्या हो राज ॥ मधुकरने नवमनिका, तिम मुझने घणी वाहली सातमा जिननी सेवा हो
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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