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________________ (१७७) राज ॥ १ ॥ अन्य नजिक सुर ले घणा, पण मुफ मनडं तेहथी नावे एकण रागें हो राज ॥ राच्यो हुँ रूपातीतथी, कारण मन मान्यानुं गुंकोग्नु शहां लागे हो राज ॥ ॥ मूलनी नक्तं रीजशे, नहि तो अव रनी रीतें क्यारे पण नवि खीजे हो राज ॥ उल गडी मोंघी थशे, कंबल बोवे जारी जिम जिम ज लथी जीजें हो राज ॥ ३ ॥ मनथी निवाजस नहि करे, जो कर ग्रहिने लीजें यावशे ते लेखें हो राज ॥ मोहोटानें कहेतुं किस्युं, पगदोडी अनुचरनी अंतर जामी देखे हो राज ॥ ४ ॥ एहथी झुं अधिकुं अने, आवी मनडे वसीयो साहामो सुगुण सनेही हो रा ज ॥ जे वश अाव्या आपणे, तेहने माग्युं देतां अ जर रहे कहो केही.हो राज ॥५॥ अति परचे विरचे नही, नित नित नवलो नवलो प्रनुजी मुऊयी नासे हो राज ॥ ए प्रचुता ए निपुणता, परम पुरुष जे जेहवा तेहवा किहांथी को पासें हो राज ॥६॥ नीनो परम महारसें, माहारो नाथ नगीनो तेहने कहो कुण निंदे हो राज ॥ समकित दृढता कारणे, रूपविबुधनो मोहनस्वामी सुपासने वंदे हो राज ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥ अथ श्री चंप्रन जिन स्तवनं ॥ ॥ नंदसलूणा नंदना रेलो ॥ ए देशी ॥ ॥ श्री शंकरचं प्रनु रे लो, तुं ध्याता जगनो चिल रेलो ॥ तुं परब्रह्म तुं श्रीपति रे लो, तुं अविनाशी अ विगति रे लो॥१॥ समकित तत्त्व जगावीयो रेलो, १२
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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