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( ११३ )
जीत्यो दिनकर तेजशुं ॥ म० ॥ फिरतो रहे ते याकाश ॥ म० ॥ निंद न यावे तेहने ॥ म० ॥ जेह मन खेद अन्यास || म० ॥ ५ ॥ इम जीत्यो तुमें जगतनो ॥ म० ॥ हरि लियो चित्त रतन्न ॥ म० ॥ बंधु क हावो जगतना ॥ म० ॥ ते किम होय उपमन्न ॥ ॥ म० ॥ ६ ॥ गति तुम्हें जाणो तुम तणी ॥ म० ॥ डुं सेतुं तुम्ह पाय ॥ म० ॥ शरण करे बलिया तं ॥ ० ॥ जस कहे तस सुख थाय ॥ म० ॥ ७ ॥ ॥ अथ श्री अजित वीर्य जिन स्तवनं ॥ ॥ ए बिंकी किहां राखी ॥ ए देशी ॥
॥ राग धन्याश्री ॥ दीव पुरकर वर परिधें, विज य नलिनावर सोहे ॥ नयरि अयोध्या मंरुन स्वस्तिक, लंबन जिन जगमोहे रे ॥ जविया अजितवीरिय जिन वंदो ॥ एकणी ॥ १ ॥ राजपाल कुल मुकुट नगी नो, मात कनीनिका जायो ॥ रत्नमाला राणीनो वत्र न, प्रत्यक्ष सुरमणि पायो रे ॥ ज० ॥ २ ॥ इरिजनस्तुति करिजें हुई दूषण, हुए तस शोषण ईहा ॥ एहवा सा बिना गुण गाइ, पवित्र करुं हुं जीहा रे ॥ ज० ॥ ३ ॥ प्रभु गुण गए गंगाजल नाही, कीयो करम मल दूर ॥ स्नातक पद जिन नगति लहियें, चिदानंद जर पूर रें ॥ ज० ॥ ४ ॥ जे संसर्ग अनेदारोपें, समापति मुनि माने ॥ ते जिनवर गुण थुणतां लहियें, ज्ञान ध्यान लयताने रे ॥ ज० ॥ ५ ॥ स्पर्श ज्ञान इणि परें अनुन वतां, देखीजें निज रूप ॥ सकल जोग जीवन ते पामी,