SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ११४ ) निस्तरीयें नवकूप रे ॥ ज० ॥ ६ ॥ शरण त्राण या लंबन जिनजी, कोई नहीं तस तोले || श्री नयविज विबुध पय सेवक, वाचक जस इम बोलें रे ॥ ज० ॥ ७ ॥ ॥ अथ श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्याय ॥ ॥ कृत चोवीशजिन स्तुति प्रारंभः ॥ ॥ तत्र ॥ ॥ प्रथम श्री रूपनदेव जिन स्तवनं ॥ ॥ महा विदेह क्षेत्र सोहामणो ॥ ए देशी ॥ जगजीव न जगवालहो, मरुदेवीनो नंद लाल रे ॥ मुख दीठे सुख उपजे, दर्शन अतिहि श्रानंद लाल रे ॥ जग० ॥ १ ॥ खडी अंबुज पांखडी, अष्टमी शशि सम नाल लाल रे ॥ वदन ते शारद चंदलो, वाणी प्रतिहि रसाल लाल रे ॥ जग० ॥ २ ॥ लक्षण अंगें विराजता, डहिय सहस उदार लाल रे ॥ रेखा कर चरणादिकें, अभ्यंतर नहिं पार लाल रे ॥ जग० ॥ ३ ॥ इंड् चं रवि गिरि तला, गुण लइ घडियुं अंग ला लरे ॥ नाग्य किहां की आवियुं त्र्यचरिज एह उत्तं ग लाल रे ॥ जग० ॥ ४ ॥ गुण सघला अंगें करया, दूर कथा सवि दोष लाल रे ॥ वाचक यशविजयें थुम्यो, देजो सुखनो पोष लाल रे ॥ जग० ॥ ५ ॥ ॥ अथ श्री अजितजिन स्तवनं ॥ || निंड्डी वेरण होइ र५ ॥ ए देशी ॥ अजित जि दशं प्रीतडी, मुंज न गमे हो बीजानो संग के ॥ मा T
SR No.010285
Book TitleJain Prabodh Pustak 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1889
Total Pages827
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy