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________________ (१३) चाहिये तो फिर उसके ऊपर कुछ भी असर नहीं होगा । आत्माकाः जब इस प्रकारका स्वभाव है तो अब उसका मूल क्या है यह देखना चाहिये। क्योंकि प्रत्येक वस्तु के दोनों पावोंकी जांच करनी चाहिये--वस्तुकी और उसके स्वरूपकी । यदि हम अपने आत्माकी स्थिति अथवा हालतके विषयमें विनार करें तो उसकी उत्पत्ति भी है और नाश भी है। मनुष्य देहमें आत्माकी स्थितिका विचार किया जाय तो उसके जन्मके समय इस स्थितिका प्रारंभ और मरणके समय नाश समझना चाहिये । परन्तु यह प्रारंभ और नाश उसकी पहलेकी स्थितिका है स्वयं वस्तका नहीं है । आत्मा द्रव्यरूपसे तो हमेशा नित्य है परन्तु पर्यायरूपसे उसकी प्रत्येक पर्यायकी उत्पत्ति और नाश है । अब इस आत्माकी स्थिति ( पर्याय ) की उत्पत्ति यह वात दिखलाती है कि इस उत्पत्तिके पहले आत्माकी दूसरी स्थिति थी। क्योंकि यस्तु जब पहले किसी स्थितिमें हो तब ही दूसरी स्थिति हो सकती है। नहीं तो उसका अस्तित्व ही नहीं हो सकता है। चाहे एक स्थिति हमेशा कायम नहीं रहे परन्तु वस्तु किसी म किसी स्थिति में तो हमेशा ही रहती हैं । अतएव यदि अपने आ त्माकी वर्तमान स्थितिकी उत्पत्ति है, तो इसके पहले भी वह किसी स्थितिमें होना चाहिये और इस स्थिति नाशके पीछे भी कोई दसरी स्थिति धारण करना चाहिये । इससे मविप्यकी स्थिति इस वर्तमान स्थितिका ही परिणाम है ऐसा समझना चाहिये । और जैसे भविष्यकी स्थिति वर्तमानकी स्थितिका परिणाम है उसी प्रकारसे यह वर्तमान स्थिति इससे पूर्वकी स्थितिका परिणाम है । क्योंकि जो वर्तमान है वह भूतका भविष्यत ही है। तव भविष्यको स्थितिको विषयमें
SR No.010284
Book TitleJain Philosophy
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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