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________________ ८० ) ( तृतीय भाग क्तिक स्वार्थ के लिए अथवा परिग्रह रुप मोह के लिए नहीं होनाचाहिए, किन्तु समाज, धर्म व देश हित के लिए होना चाहिए। केवल धनवान होने के कारण से ही किसी मनुष्य को कोई पुण्यशाली कहे तो यह सत्य नहीं है, किन्तु यदि वह मनुष्य परहित के लिए धन का व्यय करे तो वह नीतिसपन्न और प्रामापिक है एव पुण्यात्मा है । आज यदि कोई मनुष्य नीति का उल्लघन करके धन एकत्र करता है, इस प्रकार उसके अधिकार में धन होने के कारण से ही यदि हम उसे पुण्यशाली मान ले तो चोरी और लूटेरों को ( जिनके अधिकार में खूब धन होता हैं ) भी पुणशाली मानना पडगा । पुण्य और पाप की परीक्षा करने को यह प्रणाली सर्वथा विपरीत है । मिथ्या है । पुण्य का जो लक्षण प्रारंभ में ऊपर बतलाया है, उस लक्षण को देखते हुए मट्टा-फाटका, राक्षसी मंत्र, वर-कन्याविक्रय, जुवा, व्याजमोरी, दगाबाजी, नफाखोरी, अनिष्ट वस्तुओं का व्यापार, सराव नोकरी आदि सभी बुरे मागों द्वारा आने बाला धन पुण्य का नहीं किन्तु पाप का ही परिणाम है, हि वह अनीनिमय और पावर्धक है, अतएव वह अशुभ (पाप) कर्म का कर्ता है। कारण मद्गुण प्राप्त करने का प्रारम्भ तो शुभ कियाओ द्वारा ही करना पड़ेगा। रिमी भी दिन पुण्य ( धर्म-साधन ) विना धर्म फल मिलने या नहीं है, ऐसा विचार करके ही ज्ञानी पुरुषों ने कितने ही मार्ग बतलायें है । उनमें दान का मार्ग प्रथम है, यह जथवा प्रतिफल की बिना आया रिये ही निः भाव से दान दिया जाना चाहिए ।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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