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________________ जन पाठावली) (८१ दान के पात्र-- मुपात्र साधु-माध्वियो को अन्न, वस्त्र आदि देने का सर्व प्रथम कयन किया गया है । पच महाव्रतधारी साधु प्रभु की भक्ति अथवा धर्मोपदेश द्वारा उसका सुन्दर प्रतिफल देते हैं । ये दान भी इस प्रकार लेते है कि जिससे दाता के सयम और भक्ति में उन्नति हो, यही कारण है कि दाता को इच्छा की अपेक्षा मे लेने वाले की इच्छा की जबाबदारी शास्त्रकारो ने अधिक बतलाई है। मिक्ष की महत्ता किस लिए-- उत्तरदायित्व को समझने वाले ऐसे पच महाव्रतधारी भिक्षु के दर्शन और सहवास से भी दाता का सयम, भक्ति एव सत्य के प्रति प्रेम बढ़ता है, इसीलिए 'अतिथिसविभाग' नामक वारहवे व्रत में भी इसकी महत्ता बतलाई गई है। यहां पर दान को केवल अच्छी क्रिया ही नहीं समझना किन्तु आत्मसुधार का मार्ग समझना चाहिए । गास्न मे ऐसे दान को निर्जरा तप कहा गया है, यदि सयमभावना के दृष्टिकोण को त्याग कर किसी अन्य दृष्टिकोण से दान दिया जाय तो वह केवल अच्छा काम मात्र ही माना जायगा। पुण्य के ९प्रकार १ अन्नदान, २ जलदान, ३ आश्रय (मकानादि) दान, ८ आनन, पाट आदि का दान, ५ वस्नदान, ६ मन द्वारा किसी का भी इप्ट चितन, ७ वचन द्वारा नात्त्विक शब्दोच्चारण, ८ शरीर द्वारा संवा करना और ९ नमस्कार करके विनीतभाव प्रगित करना।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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