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________________ = जैन पाठावली) चुका है। आत्मा को जानना ही सच्चा जान है। जब तक आत्मा का स्वरूप नहीं जाना जाता तब तक ज्ञान, अज्ञान है। समस्त पदार्थो का परिपूर्ण ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है। केवलज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और है । सव मिलाकर पांच ज्ञान इस प्रकार है (१) मतिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मनःपर्यायज्ञान और (५) केवलज्ञान । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, किसी भी सम्यग्दृष्टि जीव को हो सकते है । सम्यग्दृष्टि जीव वह है जिसे आत्मा के स्वरूप का भान हो गया हो । जो जीव सम्यग्दृष्टि नहीं है उन्हे भी ये तीन ज्ञान प्राप्त होते है, मगर सम्यग्दर्शन न : होने के कारण वे अज्ञान अर्थात् मिथ्याज्ञान कहलाते है । उनके . ज्ञान मति-अज्ञान, श्रुत-अनान और विभगज्ञान कहे जाते हैं । : ऐसे अज्ञानियो में चाहे जितना ज्ञान क्यो न हो, मगर • आत्म-कल्याण में वह उपयोगी नही होता। मन पर्यायनान प्रमाद से रहिन सकल चारित वाले . सम्यग्दृष्टि पुरुषों को ही होता है । केवलज्ञान उन महापुरुषो को प्राप्त होता है जो मोह को सर्वथा नष्ट करके पूर्ण वीतराग बन जाते है । केवलज्ञान प्राप्त होने पर वह महापुरुप केवली या अरिहत कहलाते है । मन पर्यायज्ञान और केवलज्ञान मिथ्याप्टि वाले जीवो को प्राप्त नहीं होते । अतएव जैसे मतिजान का विपरीत मति-अज्ञान बतलाया गया है. वैमा इन दोनो सानो का विपरीत नही हो सकता।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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