SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८), ( तृतीय भार्ग मे, अतिचार की अपेक्षा अनाचार मे अधिक पाप है, अनाचा मे तो व्रत पूरी तरह भग हो जाता है । ज्ञान के चौदह अतिचार है। दर्शन के पांच अतिचार है । तप के पांच अतिचार है । चान्त्रि के पचहत्तर अतिचार है। इस तरह सब मिलकर ९९ अतिचार होते है। इन ९९ अतिचारो का कायोत्सर्ग में चिन्तन किया जाता है । पाठ छठा चौथा आवश्यक यहाँ से 'प्रतिक्रमण' नामक चौथा आवश्यक आरम्म होता है । पहले के तीन आवश्यको की तरह इस चौथे आवश्यक की भी आना लेनी चाहिए। प्रत्येक आवश्यक के समय आज्ञा मांगने का विधान है। इसका कारण यह है कि आज्ञा लेने से दृढता बढती है । अकसर बड़े आदमी के सामने हम भूल नहीं होने देते । कदाचित् भूल हो जाती है तो उसके लि माफी मांगते है । इसी प्रकार गुरु महाराज की आज्ञा लेक आवश्यक करने से सावधानी और रुचि के साथ गावश्यक करने की प्रेरणा मिलती है। ज्ञान के भेद :. ज्ञान का अर्थ " नात्मा तथा जड़ की पहचान" किया ज
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy