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________________ जैन पाठावली) पाठ पाँचवाँ अतिचारों की समझ अतिचारो का चिन्तन करने के विपय में विचार किया जा चुका है। तीसरे पाठ मे उन्ही के सम्बध मे भावना करने के बाद ज्ञान, दर्शन. चारित्र तथा तप सम्बन्धी अतिचारो का कायोत्सर्ग मे चिंतन करना चाहिए । अतिचार आगे कहेगे। अतिचार का अर्थ है दोप, भूल अथवा जो विरोध हुआ हो वह । सभी व्रतो के अतिचार होते है । किसी भी व्रत मे भूल होने की चार सीढियाँ है - अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार। अर्थ (१) अतिक्रम (व्रत को भग) करने का विचार मात्र करना (२) व्यतिक्रम- (व्रत को भंग) करने के लिए सामग्री इकट्ठी करना (३) अतिचार- व्रत को आगिक रूप से भग करना (४) अनाचार- व्रत को पूरी तरह भग कर देना व्रत-भग की ये चारो भूमिकाएँ अतिचार कहलाती है । इन चारो में प्रम से अधिक-अधिक पाप होता है । अतिप्रम की अपेक्षा व्यतिक्रम मे, व्यतिक्रम की अपेक्षा अतिचार
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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