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________________ १९८) (जैन पाठावली ससार की माया भी ऐसी ही है । इसमे जो फंस जाता हे सो निकल नही पाता । अब निकलू, अब निकल करतेकरते वह ज्यादा-ज्यादा फंसता जाता है । मौत आने पर वह मरता है और फिर जन्म लेता है। प्रभव ने ऐसी वाते पहली बार ही सुनी थी । उसे वैराग्य हो गया। वह कहने लगा--'आप मेरे गुरु और मैं अ पका चेला । अब जहाँ आप वही मै ।' प्रभव के साथियो ने भी ऐसा ही निश्चय किया। . जम्बकुमार की स्त्रियां भी वैराग्य के रंग में रंग गई ।। अच्छा खासा सघ बन गया । भोर हुआ। माता-पिता से आज्ञा मांगने गये । उन्होने सहर्प आज्ञा दी और खुद भी तैयार हो गये यह बात राजा कोणिक को मालूम हुई । जम्बू जैसे जवान सेठ का दीक्षा लेना कसे पोसा सकता है ? उमने रोकने की वहुत कोशिश की, मगर जम्बूकुमार को अब कौन रोक सकता था? प्रभव के साथी ५०० थे । वे सब मिलाकर ५२७ जनो की एक ही साथ दीक्षा हुई। ऐसा वडा उत्सव राजगृही में पहले कभी नही हुआ होगा। . सब मिलकर सुधर्मास्वामी के पास पहुँचे। सब ने साधुजीवन की प्रतिज्ञाएँ ली। वे इस प्रकार हैं - साधु--जीवन की प्रतिज्ञाएँ १) सभी छोटे-मोटे जीवो को अपने समान समझंगा । २) प्राणपण से सत्य का पालन करूंगा।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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