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________________ क्षमा जैन परम्परा का इतिहास गीली आँखो का उन पर कोई असर नही हुआ। भरत हाथ मलते हुए घर लौट गया। साम्राज्यवाद एक मानसिक प्यास है। वह उभरने के वाद सहसा नहीं बुझती । भरत ने एक-एक कर सारे राज्यो को अपने अधीन कर लिया। वाहुबलि को उसने नही छुआ। अट्ठानवें भाइयो के राज्य-त्याग को वह अब भी नही भूला था । अन्तर्द्वन्द्व चलता रहा। एकछत्र राज्य का सपना पूरा नही हुआ। असयम का जगत ही ऐसा है, जहाँ सव कुछ पाने पर भी व्यक्ति को अकिञ्चनता की अनुभूति होने लगती है। क्षमा " . ___ दूत के मुह से भरत का सन्देश सुन बाहुबलि की भृकुटि तन गई। दवा हुआ रोप उभर आया । 'कांपते ओठो से कहा-दूत ! भरत अब भी भूखा . है ? अपने अठानवे सगे भाइयो का राज्य हडप कर भी तृप्त नही बना। हाय ! यह कैसी हीन मनोदशा है । साम्राज्यवादी के लिए निपेध जैसा कुछ होता ही नही । मेरा वाहु-बल किससे कम है ? क्या मैं दूसरे राज्यो को नही हड़प ' सकता ? किन्तु यह मानवता का अपमान व शक्ति का दुरुपयोग और व्यवस्था का भग है। मैं ऐसा कार्य नही कर सकता। व्यवस्था के प्रवर्तक हमारे पिता है। उनके पुत्रो को उसे तोड़ने में लजा का अनुभव होना चाहिए । गक्ति का प्राधान्य पशु-जगत् का चिह्न है । मानव-जगत् मे विवेक का प्राधान्य होना चाहिए । शक्ति का सिद्धान्त पनपा तो बच्चो और बूढो का क्या बनेगा ? युवक उन्हें चट कर जाएगे। रोगी, दुर्बल और अपग के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं रहेगा। फिर तो यह सारा विश्व रौद्र बन जाएगा। क्रूरता के साथी है, ज्वाला-स्फुलिंग, ताप और सर्वनाग । क्या मेरा भाई अभी-अभी समूचे जगत् को सर्वनाग की ओर ढकेलना चाहता है ? माक्रमण एक उन्माद है । आक्रान्ता उससे वेभान हो दूसरो पर टूट पडता है । भरत ने ऐसा ही किया। मैं उसे चुप्पी साधे देखता रहा। अब उस उन्माद के रोगी का शिकार मैं हूँ। हिंसा से हिंसा की आग नही वुझती-यह मैं जानता हूँ। आक्रमण को मैं अभिशाप मानता हूँ। किन्तु आक्रमणकारी को सहूँ-यह मेरी तितिक्षा से परे है। तितिक्षा मनुष्य के उदात्त चरित्र
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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