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________________ १०] जैन परम्परा का इतिहास स्वयं न जले-यह. कभी नही होता। राज्य रूपी पक्षी का दूसरा पर दुर्बल है। . वह है कायरता । मैं तुम्हे कायर बनने की सलाह भी कैसे दे सकता हूँ ? पुत्रो । मैं तुम्हे ऐसा राज्य देना चाहता हूँ, जिसके साथ लड़ाई और कायरता की कड़ियाँ जुडी हुई नही है।। भगवान् की आश्वासन भरी वाणी सुन वे सारे के सारे खुशी से झूम उठे। आशा-भरी दृष्टि से एकटक भगवान् की ओर देखने लगे। भगवान् की भावना को वे नही पकड सके । भौतिक जगत् की सत्ता और अधिकारो से परे कोई राज्य हो सकता है—यह उसको कल्पना मे नही समाया। उनकी किसी विचित्र भू-खण्ड को पाने की लालसा तीन हो उठो । भगवान् इसीलिए तो भगवान् थे कि उनके पास कुछ भी नही था। उत्सर्ग की चरम रेखा पर पहुंचने वाले ही भगवान् बनते है । सग्रह के चरम विन्दु पर पहुँच कोई भगवान् वना हो-ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है । भगवान् ने कहा - सयम का क्षेत्र निर्वाध राज्य है। इसे लो। न तुम्हे कोई अधीन करने आयेगा और न वहाँ युद्ध और कायरता का प्रसंग है । पुत्रो ने देखा पिता उन्हें राज्य त्यागने की सलाह दे रहे है । पूर्व कल्पना पर पटाक्षेप हो गया । अकल्पित चित्र सामने आया । आखिर वे भी भगवान् के वेटे थे। भगवान् के मार्ग-दर्शन का सम्मान किया । राज्य को त्याग स्वराज्य की ओर चल पड़े । इस राज्य की अपनी विशेषताए है। इसे पाने वाला सब कुछ पा जाता है। राज्य की मोहकता तब तक रहती है। जब तक व्यक्ति स्वराज्य की सीमा मे नही चला आता । एक सयम के बिना व्यक्ति सव कुछ पाना चाहता है । सयम के आने पर कुछ भी पाए बिना सब कुछ पाने की कामना नष्ट हो जाती है। त्याग शक्तिशाली अस्त्र है इसका कोई। प्रतिद्वन्द्वी नही है। भरत का आक्रामक दिल पसीज गया । वह दौड़ा-दौड़ा आया। अपनी भूल पर पछतावा हुआ। भाइयो से क्षमा मांगी। स्वतन्त्रता पूर्वक अपना-अपना राज्य सम्हालने को कहा। किन्तु वे अब राज्य-लोभी सम्राट् भरत के भाई नही रहे थे । वे अकिञ्चन, जगत् के भाई बन चुके थे। भरत का भ्रातृ-प्रेम अब उन्हें नही ललचा सका। वे उसकी लालची आँखो को देख चुके थे। इसलिए उसकी
SR No.010279
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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