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________________ Miwwwwwwwwwwin ६२] जैन युग-निर्माता । उनके चारों ओर एक बड़ी भीड़ एकत्रित हो गई। यह कार्य उनके उद्देश्यके विरुद्ध थे, फन्तु इनसे योगीश्वर ऋषभका हृदय शोभित नहीं हुआ। उन्होंने इन बातोपर लक्ष्य तक नहीं दिया, वे अपनी भावनामें मम थे । अपने रद्देश्पके पथ पर अडिग थे इस तरह चरते हुर वे राजस्थ उपस्थित हुए। सोमप्रभ और श्रेयांसने उन्हें दृग्से आते देख ।। भक्ति विनय मनासे उन्होंने चरण में प्रणाम किया उनकी पूजाकी, चरणों का प्रक्षालन किया और उनकी चाणाको अपने मस्तक पा चढ़ा कर अपनेको कृतार्थ समझा। फिर वे उनके मन की भावना जानने के लिए और उनकी आज्ञा चाहने के लिए उनके साम्हने नतमस्तक खड़े हो गये । __महात्मा वृषभने कुछ नहीं चाहा कुछ याचना नहीं की। जैन साथ कुछ नहीं चाइते कुक याचना नहीं करने, भोजन तक भी वे नहीं । तं, यह भी गृहस्थकी इच्छा पर अवलंबित है । वह उन्हें भक्ति से अयाचिन वृत्ति में देगा वे उसे अनुकूल होने पर लेंगे, नहीं तो नहीं लेंगे व धन, पैसा और वैभव तो उनके लिए उपपर्ग है। जिसका वे त्याग कर चुके उसकी चाहना कैसी : जिम पथमे वे अगे बढ़ चुके उप पसं !फा वापिस लौटना कैमा ? धर्म संक्ट का यह समय था, ममी निम्तचघ थे, क ई सोच नहीं सकते थे कि इस समय क्या करना ? कुछ क्षण इस तरह बीत गए । श्रेयां मन सोचा यह तपस्वी कुछ नहीं चाहेंगे न कुछ अपने थप कहेंगे तब इस समय क्या करना ! उनकी विचारक बुद्धिने सका साथ दिया, उन्होंने इस समयकी उलझनको शीघ्र ही सुखदा
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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