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________________ जैन युग-निर्माता | I ३८ ] है कि पवित्रता ही नारी जीवन है और शील ही नारी मर्यादा है, तुम उसे संभालो । - पवित्रता के साम्हने देवताका छल-छझ नहीं टिक सका । उसे पराजित होकर प्रकट होना पड़ा । रवित्रतने अपना मायाबेश बदला । देवालयका चोला उतारकर वह अपने असली रूपमें आया और इन्द्र सभाका सारा हाल सुनाकर जयकुमारसे बोला - जयकुमार ! वास्तव में आप जयकुमार ही हैं। आप एक पत्नीव्रत के आदर्श हैं। याप जैसे व्रती पुरुषोंके बलपर ही देव सभामें इन्द्र इस व्रतपर निर्भय बोल रहे थे । आजीवन बाल ब्रह्मचारी महान हैं किन्तु आप जैसे एकपत्नीव्रतधारी भी महानता से कम नहीं हैं। मैं आपकी दृढ़ताकी प्रशंसा करता हूं और निःसंकोच रूपसे कहता हूं कि भारतको आप जैसे दृढ़ व्यक्तियोंपर अभिमान होना चाहिए। संसार आपसे दृढ़ताका पाट सीखे और प्रत्येक भारतीय आपके आदर्शको ग्रहण करे । रवित्रतने इन्द्रसभा में जाकर अपने परीक्षणकी रिपोर्ट देवगण के साम्हने प्रस्तुत की, देवताओंने इन्द्रके दृष्टिकोणको समझा और उनकी विचारधाराको स्वीकार किया । जयकुमारने एकपत्नीव्रतका निर्वाह करते हुए सेवा और परोपकार में जीवन के क्षणोंको व्यतीत किया । प्रजापर उनके संयमी जीवन, न्यायप्रियता और वीरताका एकांत प्रभाव पड़ा था | एक दिन उनके हृदयमें लोककल्याणकी भावना जागृत हुई । के राज्य बंधन में नहीं रह सके। वे तपस्वी बने, आत्मकल्याणके पथ बढ़े और धर्मके एक महा स्तंभ बने ।
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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