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________________ ३२] जैन युग-निर्माता। उनके नेत्र सुलोचनाकी दिव्य भाभा पर ही अनुरंजित रहते थे। बासनाओंके वीहर जंगलमें वे उसकी कमनीय कांतिको नहीं भूलते थे। देवराज इन्द्रकी सभामें एक विवाद उपस्थित था, वे कहते थे, पूर्ण ब्रह्मचारीकी तरह एक-पत्नीव्रतीका भी महत्त्व कम नहीं है। गृहस्थ जीवन में सुन्दरी महिलाओं के संपर्क में रहते हुए, प्रभुता और वैभव होने पर भी अपने आपपर काबू रखना भी महान् ब्रह्मचर्य है। भखड़ ब्रह्मचारी अपनी वासनाएं विजित करनेके लिए कहीं समर्थ है वन कि एकवार अपना ब्रह्मचर्य नष्ट कर देनेवाले व्यक्तिको अपने लिए अधिक समर्थ बनानेका प्रयत्न करना पड़ता है। ऐसा व्यक्ति ब्रह्मचारी रह सकता है और उसकी सफलता एक महान सफलता कही जासकती है! देवगण इसमें सहमत नहीं थे। वह कहते थे कि जिस पुरुषने एकवार स्त्री संसर्ग कर लिया हो वह अपने आपको काबूमें नहीं रख सकता। किसी सीमा बद्ध रह सकना उसके लिए संभव ही नहीं। वासनाकी भागमें एकवार ईधन पढ़ चुकनेपर उसकी लपटें फिर ईधनको छूना चाहती हैं। इस दृष्टिमे एकपत्नीव्रत कहीं ब्रह्मचर्य से अधिक मूल्यवान पर जाता है लेकिन उसका होना कष्टसाध्य है । इतना त्याग मनुष्य कर सकता है लेकिन कोई उदाहरण नहीं दे सकता । दलित व्यक्तिको पददलित करने में कुछ अधिक साधनोंकी भावश्यकता नहीं होती। गतिशील वासनाकी दिशाको अन्य दिशाकी गोर लेजान! कोई कठिन नहीं । भुक्तभोगी व्यक्तिकी वासना शीघ्र
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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