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________________ मेघेश्वर जयकुमार । [२१ wwwmeenawimarawaamananewwwnewmomwwwanmasummoonama miwwws भांख लेना चाहते थे । ओह ! अब तो उनका मुंह बिलकुल बंद हो गया ! लेकिन वह पागल भ्रमर भक्के ! वह भी क्या उसी में बंद हो गया ! हां हो गया। सोमप्रभजीने देखा वह मधु-लोलुपी अमर कमलके साथ ही साथ उसमें बंद हो गया। उनका हृदय तिलमिला उठा, वे अचानक बोल उठे-अरे ! अब उस मूर्व मधुपका क्या होगा! क्या रात्रिभर कमल कोप्यमें बंद रहकर वह अपने प्राणों को सुरक्षित रख सकेगा ! उन्हें उसकी मासक्तिपर हृदयमें बड़ी हानि हुई। ओह! भ्रमर तुमने क्या कभी यह सोचा है कि प्रभात होनेतक कमक तुम्हें जीवित रख सकेगा ? तु यह भी मालूम था कि तुम्हारी इस अनुरक्तिका अंतिम परिणाम क्या होगा? और मुख मानव ! तू भी तो इस मधुर वासना और कमनीय कामनाओं के कलरवमें प्रभातसे लेकर जीवन के अंतिम सायंकाल तक अपनेको व्यस्त रखकर कामरात्रिके हाथों सौंर देता है। तने कभी भी यह सोचा है कि इसका अंतिम परिणाम क्या होगा ? जीवनके इस सौन्दर्यपूर्ण पटका दृश्य परिवर्तन कितना भयंकर होगा ! ओह ! मुझे भी तो इस परिवर्तनमें से गुजरना होगा। ___ सोमप्रमको आत्मापर संध्याके इस दृश्यने विचारोंकी विचित्र तरंगें लहरायीं। उनका हृदय एकाएक संपारसे विरक्त होने लगा। धीरे धीरे मात्मज्ञानका मुन्दर प्रभात उदित हुआ, उसमें उन्होंने अनंत शक्तिसे बालोकित प्रभाको देखा । वैभवसे उनै विरक्ति हो उठी, इन्द्रिय सुखकी इच्छाएं जलने लगी और वे वैराग्यकी उज्ज्वल कीर्तिका दर्शन करने संगे। निर्मल भाकाशमें दिशाएं जिसतरह शांत होनाती
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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