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________________ २०] जैन युग-निर्माता। रूपसे वे इन दृष्यों को देखते रहे । अचानक ही उनकी नजर महलके नीचेवाले शुभ्र सरोवरकी ओर गई । सरोवरके स्वच्छ जलमें सायंकालीन लालिमाने विचित्र ही दृश्य कर दिया था-सारा सरोवर प्रभासे स्वर्णमय बन गया थ । एक ओर यह दृश्य उन्होंने देखा; दूसरी ओर उन्होंने कमलोके संकुचित कलेवर पर दृष्टि डाली । अरे ! इस सुन्दर समयमें उनका मुख इतना म्लान क्यों होरहा था। उनकी वह प्रातःकालीन मधुर मुस्कान विषादमें परिणत होरही थी। वह हर्ष, वह कालिमा, वह सुकुमारता उनकी किसीने हाण करली थी। उनके नेत्रोंके साम्डने प्रभातका वह सुन्दर दृश्य नृत्य करने कगा। जब मलय वह रही थी और मुस्कुराते हुए कमल पुप्पोको मीठीक मीठी थपकी दे रही थी। सूर्य उसके सौन्दर्य पर अपना सार्वरक न्योछावर कर रहा था। उसकी प्रकाशमयी किरणे प्रत्येक अंगका बालिंगन कर मनो-मुग्ध होरही थीं, मधुपगण मधुरस पीकर मदोन्मत्त होरहा था, गुन गुन नादसे माने प्रेमीका गुणगान कर रहा था, और का यह संध्याका समय कमलों को उनकी मृत्युका संदेह सुना रहा था। वे अपना सिर झुकाए हुए सब सुन रहे थे, किरणें उनसे दूर भाग रही थीं, सूर्यका मालिंगन शिथिल हो रहा था। इस विपत्तिके समक भोरे भी उसका साथ छोड़कर न मालूप कहां चले गए थे। कुछ बेचारे जिन्होंने उनके मधुर मधुरसका पान किया था, दृष्टिसे मालिंगन किया था वही उसके साथी इस विपत्तिके समयमें उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहते थे। कम सब अपने इस संकुचित और मलिन मुखको संसारके साम्हने नहीं दिखलाना चाहते थे। वे भी धीरे २ अपनी
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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