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________________ MORNAMAANWROMAN २८ । जैन युग-निर्माता। विजयसे तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए था। लेकिन मैं देखता हूँ कि तुम इससे क्षुब्ध हो उठे हो-चक्रवर्ति पुत्रके लिए यह शोमापद नहीं। मैं जानता हूं तुम वीर हो, लेकिन वीरताका इस प्रकार दुरुपयोग करना, होनेवाले भावी भारत-सम्राटके लिए अनुचित है। वीरता मन्याय प्रतिका के लिए होना चाहिए, दुष्ट दलन के लिए ही उसका प्रयोग उचित होगा। इसके विरुद्ध एक अन्याय युद्धमें उसका उपयोग होता देख कर मेरा हृदय दुखित होरहा है। वीर कुमार ! तुम्हें शांत होना चाहिए और मेरी इस विजयमें सम्मिलित होकर अपने स्नेहका परिचय देना चाहिए । अर्ककीर्ति मानो इन शब्दोंको सुननेके लिए तैयार न था, बोला-जयकुमार ! गलेमें पड़े हुए फूलों को देखकर तुम विजयसे पागल हो गए हो, इसलिए ही तुम्हें मेग अपमान नहीं खलता । राजाओंकी विराट् सभामें चक्रवर्ति पुत्रके गौरवको अवहेलना करना तुम्हारे जैसे पागलोंका ही काम है, मैं यह तुम्हारा पागलपन अभी ठीक करूंगा। तुम्हें अभी मालूम हो जायगा कि वीर पुरुष अपने अन्यायका बदला किस तरह लेते हैं। यदि तुम्हें अपने प्राण प्रिय हैं, तो अब भी समय है तुम इस कुमारीको सादर मेरे चरणों में अर्पण कर दो। तुम जानते हो कि श्रेष्ठ वस्तु महान् पुरुषों को ही शोभा देती है, क्षुद्र व्यक्तियों के लिये नहीं ! इसलिए मैं तुम्हें एकबार और समय देता हूं, तुम खूब सोच लो । यदि तुम्हें अपना जीवन और भारतके भावी सम्राट्का सम्मान प्रिय है तो सुलोचना देकर मेरे प्रेम-भाजन बनो। जयकुमारका हृदय इन शब्दोंसे उत्तेजित नहीं हुमा । उसने
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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