SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७३ ) वर्द्धमान स्तुमः सर्वनयनद्यर्णवागमम् । संक्षेपतरतदुन्नीतनयभेदानुवादतः ॥ टीका-नीयन्ते प्राप्यन्ते सदंशाङ्गीकारेणेतरांशौदासीन्येन वस्तुचोधमार्गा यैस्ते नया नैगमादयः सर्वं च ते नयाश्च सर्वनयास्त एव नद्यः सरितस्तासामर्णवस्समुद्रस्तत्तुल्य भागमो वापथो यस्य स तथा तं वर्द्धमान चरमजिनवरं वयं स्तुमः स्तुतिविषयीकुर्मः कुतः कस्मात् तदुन्नीतनयभेदानुवादतः तत्तस्य श्रीवर्द्धमानस्य उत्प्रावल्येन नीता वचनरूपेण प्राप्ता ये नयानां भेदविशेषास्तेषामनुवादतः कथितस्यैव यत्कथनं तदनुवादस्तस्मादनुवादतः कुर्मः, इति शेषः । कथै ? संक्षपतोऽल्पविस्तरत इति ॥ १॥ भावार्थ-अनंत धर्मात्मक वस्तुओं में से किसी एक विशिष्ट धर्म को लेकर अन्य धर्मों की ओर उदासीन भाव रखते हुए जो पदार्थों का वर्णन करना है, उसी का नाम नय है । वे नैगमादि सर्व नय ही नदियों के तुल्य हैं, उन नदी तुल्य नयों के समुद्र तुल्य भागम (वचनमार्ग) जिनका है उन चरम तीर्थकर महावीर भगवान् को स्तुति का विपय करते हैं अर्थात् उनकी स्तुति करते हैं। किस प्रकार स्तुति करते है ? सो ही दिखलात हैं-उस वर्द्धमान स्वामी के वचन रूप को प्राप्त हुए जो नय के भेद-उन के अनुवाद से-अर्थात् कथन किए को पुनः कथन करने से ही उन की स्तुति करते हैं। नैगमः सग्रहश्चैव व्यवहारजुसूत्रको शब्द समभिरूढवभूती चैति नया. स्मृता ॥२॥ टीका नैगमति । न एको गमो विकल्पो यस्य स नैगमः पृथक् पृथक् सामान्यविशेपयोग्रहणात् ॥१॥ संगृह्णाति विशेषान् सामान्यतया सत्तायां कोडीकरोति यः स संग्रहः ॥२॥ वि विशेषतयैव सामान्यमवहरति मन्यते योऽसो व्यवहारः ॥३॥ ऋजु वर्तमानमेव सूत्रयति वस्तुतया विकल्पयति यः स ऋजुसूत्रको द्वन्द्वे व्यवहारर्जुसूत्रकौ ॥४॥ काललिंगवचनैर्वाचकेन शब्देन समं तुल्यं पर्यायभेदेऽपि एकमेव वाच्यं मन्यमानः शब्दो नय ॥५॥ सं सम्यक् प्रकारेण यथापर्यायैरारूढ़मर्थ तथैव भिन्नवाच्यं मन्यमानः समभिरूढ़ो नयः ॥६॥ भूत शब्दोऽत्र तुल्यवाची एवं यथा वाचके शब्दे यो व्युत्पत्तिरूपो विद्यमानोऽर्थाऽस्ति तथाभूततत्तल्याऽर्थक्रियाकारिणमेव वस्तु वस्तुवन्मन्यमान एवं भूतो नयो द्वन्द्वे द्विवचनमित्यमुना प्रकारेण हे विभो ! त्वया नया स्मृताः स्वागमे कथिता इति शेपः॥२॥ भा०-अनेक प्रकार से सामान्य और विशेष ग्रहण करने से नैगम कहा जाता है ॥१॥ विशेष पदार्थों को जो सामान्यतया ग्रहण करलेना है. उसी का नाम संग्रहनय है ॥२॥ जो सामान्य को विशेषतया ग्रहण करना है
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy