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________________ ( ७४ ) वही व्यवहारनय है ॥३॥ जो मुख्यतया वर्तमान काल के द्रव्य को ही स्वीकार करना है, उसी का नाम ऋजुसूत्र नय है॥४॥पर्याय भेद होने पर भी जो काललिंग वाचक शब्दों को एक रूप से मानना है, वही शब्दनय है॥५॥ सम्यग् प्रकार से यथारूढ़ अर्थ को उसी प्रकार भिन्न वाच्य जो मानना है, उसी को समभिरूढ़ नय कहते हैं ॥६॥ भूत शब्द तुल्य अर्थ का वाची है इसलिये जो शब्द विद्यमान अर्थों का वाची है और अर्थक्रियाकारी में वरावारी रखने वाला है उसी को एवंभूतनय कहते हैं ॥७॥ अतः हे विभो ! तूने स्व आगम में इस प्रकार सात नय प्रतिपादन किये हैं अर्थात् तेरा श्रागम सात नयों का समूह रूप है। अर्था. सर्वेऽपि सामान्यविशेषावयवात्मका: सामान्य तत्र जात्यादि विशेषाश्च विभेदकाः ॥२॥ टीका-अर्था इति सर्वेऽपि निर्विशेषा अर्थी जीवादयः पदार्था. सामान्य च विशेषश्च तावव सामान्यविशेषौ उभौ अवयवौ आत्मा स्वरूपं येषां ते सामान्यविशेषोभयात्मकाः संति नान्यथा इति त्वया प्रतिपादितम् । तत्र तयोद्वयोर्मध्ये यद्वस्तुनो जात्यादिकं रूपं तत्सामान्य जाति वत्वाजीवत्वरूपा सा आदियस्य तद् जात्यादि आदि शब्दाद् द्रव्यत्वप्रमेयत्वादयो ग्राह्याः। वि विशेषेण भेदकाः पृथक्त्वस्य ज्ञापका ये चेतनत्वाचेतनत्वादयोऽसाधारणरूपा विशेपधर्मास्ते त्वया विभेदका विशेषाः प्रोक्ता इत्यर्थः ॥३॥ भावार्थ हे भगवन् ! आपने जीव आदि सर्व पदार्थ सामान्य और विशेषात्मक रूप से प्रतिपादन किये हैं, परंच उन दोनों में जो पदार्थों का जात्यादि धर्म है उस को सामान्य धर्म कहा जाता है और जो फिर उस जाति में भेदादि किये जाते हैं, उसी का नाम विशेष धर्म है। ऐक्यवृद्धिटशते भवेत्सामान्यधर्मत. विशेषाच्च निज निज लक्षयंति घट जना ॥४॥ टीका-हे विभो ! त्वदुक्तसामान्यधर्मत एकाकारप्रतीतिः एकशब्दवाच्यता सामान्य जीवत्वघटत्वचेतनत्वादिकं सामान्यमेव धर्मः सामान्यधर्मस्तस्माद् घटशतऽपि घटानां शतं घटशतं तस्मिन्नपि एकाकारा या बुद्धिमतिः सा जाता यस्य स ऐक्यबुद्धिरीदृशो जनो भवत् त्वदुक्तसामान्यधर्मतो घटशतेऽपि घटत्वं लक्षयेदिति भावः । पुनर्विशेषात् त्वदुक्तविशेषधर्मतो जनाः सर्वे नृसुरादयः प्राणिनो निजं निजं स्वकीय स्वकीय रक्तपीतवर्णादिविशेषणविशिष्टं घटं लक्षयन्तीत्यर्थः। समुदायमध्येऽपि भेदकलक्षणैर्विभिद्य गृह्णन्ति न मुह्यन्तीति संमोहहारी महांस्तवोपकारः ॥४॥ भा-हे भगवन् ! सामान्य धर्म विशेष रूप धर्म से भिन्न होता है, जिस प्रकार १०० सौ घट को एकाकार प्रकृति होने से सामान्यबुद्धि रूप से एका
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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