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________________ ( २२७ ) इस प्रकार लोक में अपनी सत्ता रखते हैं जैसेकि-धर्मद्रव्य १ अधर्मद्रव्य २और आकाश द्रव्य ३ ये तीनों द्रव्य असंख्यातप्रदेशप्रमाण लोक में एक एक संख्या के धारण करने वाले प्रतिपादन किये गए हैं । यद्यपि आकाश द्रव्य भी अनंत है परन्तु लोक में वह असंख्यात प्रदेशों को धारण किये हुए ही रहता है। क्योंकि लोक असंख्यात योजनों के आयाम और विष्कंभ के धारण करने वाला है । अतएव शास्त्रकार ने धर्म, अधर्म तथा आकाश ये तीनों द्रव्य लोक में एक २ ही प्रतिपादन किये हैं । यद्यपि धर्मद्रव्य के स्कन्ध, देश और प्रदेश रूप तीन भेद प्रतिपादन किये गए हैं तथापि भेद केवल जिज्ञासुओं के वोध के लिये ही दिखलाए गए हैं, किन्तु वास्तव में धर्मद्रव्य अविछिन्न भाव से एक रूप होकर ही लोक में स्थित है। इसी प्रकार अधर्म द्रव्य और श्राकाशद्रव्य के विषय में जानना चाहिए । जिस प्रकार धर्मद्रव्य अविछिन्न भाव से लोक में स्थित है, ठीक उसी प्रकार अधर्म और आकाश द्रव्य भी लोक मे स्थित है । किन्तु कालद्रव्य १, पुद्गलद्रव्य २ और जीवद्रव्य ३ ये तीनों लोक में अनंत प्रतिपादन किये गए हैं। क्योंकि तीनों काल की अपेक्षा कालद्रव्य अनंत प्रतिपादन किया गया है। जैसेकि-जव द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से संसार अनादि अनंत है तव भूतकाल वा भविष्यत् काल भी अनंत सिद्ध हो जाता है । अतएव कालद्रव्य तीनों काल की अपेक्षा से अनंत प्रतिपादन किया गया है। ठीक उसी प्रकार पुद्गलद्रव्य भी अनंत कथन किया गया है। क्योंकि-एक परमाणु पुद्गल से लेकर अनंत प्रदेशी स्कन्ध पर्यन्त पुद्गलद्रव्य विद्यमान है । वह अनंत वर्गणाओं के समूह का उत्पादक भी है। इस लिये यह द्रव्य भी लोक में अपने द्रव्य की अनंत संख्या रखता है। जिस प्रकार पुद्गलद्रव्य अनंत है, ठीक उसी प्रकार जीव द्रव्य भी अनंत है अर्थात् लोक में अनंत आत्माएँ निवास करती हैं। कतिपय वादियों ने एक श्रात्मा ही स्वीकार किया है। उनका मन्तव्य यह है कि-एक श्रात्मा का ही प्रतिविम्ब रूप अनेक आत्माएँ हैं । वास्तव में शुद्ध आत्मद्रव्य एक ही है । तथा किसी वादी ने आत्मद्रव्य भिन्न २माना है। एक आत्मा के मानने वालों का सिद्धान्त युक्तियों से वाध्य कर दिया है। परन्तु जैन-सिद्धान्तकारों ने आत्मद्रव्य द्रव्यरूप से अनंत स्वीकार किया है परन्तु ज्ञानात्मा के मत से श्रात्मद्रव्य एक भी है। जिस प्रकार सहन दीपक द्रव्यरूप से सहस्र रूप ही है परन्तु सहस्त्र दीपकों का प्रकाश गुण एक ही है ठीक उसी प्रकार श्रात्मद्रव्य अनंत होने पर भी ज्ञानदृष्टि और गुण के सम होने पर एक ही है। परन्तु व्यवहार पक्ष में आत्मद्रव्य अनंत है । अतएव कालद्रव्य पुद्गलद्रव्य और जीवद्रव्य अनंत प्रतिपादन किये गए हैं।
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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