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________________ ( २२६ ) एतानि षट् द्रव्याणि ज्ञेानि, इति श्रन्वयः एष इति सामान्यप्रकारेण इत्येवं रूपः उक्तः षद्रव्यात्मत्रो लोको जिनैः प्रज्ञप्तः कथितः कीदृशैजिनैर्ब्ररदर्शिभिः सम्यक् यथास्थितवस्तुरूपज्ञैः ॥ ७ ॥ भावार्थ- सामान्यतया यदि देखा जाय तो संसार मे जीव और जीव यह दोनों ही द्रव्य देखे जाते हैं । परन्तु जब रूपी और अरूपी द्रव्यों पर विचार किया जाता है तब छः द्रव्य सिद्ध होते हैं । यद्यपि जीव द्रव्य वास्तव में अरुपी प्रतिपादन किया गया है तथापि अजीव द्रव्य रूपी और अरूपी दोनों प्रकार से माना गया है जिसका वर्णन ऋगे यथास्थान किया जायगा । किन्तु इस स्थान पर तो केवल पट् द्रव्यों के नाम ही प्रतिपादन किये गये हैं । जैसेकि - धर्मास्तिकाय १ अधर्मास्तिकाय २ श्राकाशास्तिकाय ३ कालद्रव्य ४ पुद्गलास्तिकाय ५ और जीवास्तिकाय ६ । श्री अर्हन्त भगवन्तों ने यही पद् द्रव्यात्मक लोक प्रतिपादन किया है। अर्थात् पद् द्रव्यों के समूह का नाम ही लोक है। जहां पर पट् द्रव्य नहीं केवल एक आकाश द्रव्य ही हो उसका नाम अलोक है । नाना प्रकार की जो वित्रिता हाष्टगोचर होरही है यह सब षट् द्रव्यों के विस्तार का ही माहात्म्य है । अतएव यह लोक पट् द्रव्यात्मक माना गया है । साथ ही शास्त्रकार ने जो "वर" शब्द गाथा में दिया है. उसका कारण यह है कि – अवधिज्ञानी वा मनः पर्यवज्ञानी जिनेन्द्रों ने उक्त कथन नहीं किया है । किन्तु जो केवल ज्ञानी जिनेन्द्र देव हैं उन्हों ने ही पट् द्रव्यात्मक लोक प्रतिपादन किया है । क्योंकि – अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी जिन तो रूपी पदार्थों को सर्व प्रकार से देख नहीं सकते हैं. किन्तु जो केवल ज्ञानी जिन हैं जिन्हों के ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अंतराय यह चारो घातियें कर्म नष्ट हो गये हैं. उन्होंने ही पट् द्रव्यात्मक लोक प्रतिपादन किया है । पुनः उसी विषय में कहते हैं । धम्म हम्म आगासं दव्वं इक्किकमाहियं । ताणि य दव्वाणि कालो पुग्गलं जंतवो ॥ ८ ॥ उत्तराध्ययन क्र. २८ ॥ = ॥ वृत्ति-धर्मादिभेदानाह - वन्सं १ धर्म्म २ का ३ द्रव्यं इति प्रत्येक योज्यं-वर्नइव्यं अधर्म्मद्रव्यं श्राकाशद्रव्यनित्यर्थ । एतत् द्रव्यं त्र्यं एकैकं इति एवं युक्तं एवं तीर्थः श्राख्यातं ऋेतनानि त्रांणि द्रव्याणि अनंतानि वस्त्रकणिनन्तद्युक्तानि भवति तानि त्रीणि द्रव्याणि अनि ? कालः समयादिरनन्तः श्रतीतानागतायपेक्षय पुला अपि अनन्ता: जन्तवो जीत्र ऋषि अनन्ता एव । अथ षद्द्रव्यलक्षणमाह । भावार्थ - श्री भगवान् ने पड्द्रव्यात्मक लोक प्रतिपादन किया है । वे द्रव्य
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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