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________________ जैन पूजांजलि [११ अरिहंत को द्रव्य, गुण पर्याय से जानने वाला आत्मा को पहिचानता है। संसार ताप से जल जल कर मैंने अगणित दुख पाये हैं। निज शान्त स्वभाव नहीं भाया पर के ही गीत सुहाये हैं। शीतल चन्दन है भेट तुम्हें संसार ताप नाशो स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु भव दुख मेटो अन्तरयामी ॥ ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो संसार ताप विनाशनाय चन्दम् नि०स्वाहा। दुखमय अथाह भव सागर में मेरी यह नौका भटक रही। शुभ अशम भाव को भंवरों में चैतन्य शक्ति निज अटक रही। तन्दुल हैं धवल तुम्हें अपित अक्षय पद प्राप्त करूं स्वामी।हे पंच ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि । मैं काम व्यथा से घायल हूँ सुख की न मिली किंचित् छाया। चरणों में पुष्प चढ़ाता हूँ तुमको पाकर मन हर्षाया ॥ मैं काम भाव विध्वंस करूं ऐसा दो शील हृदय स्वामी। हे पंच ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो काम वाण, विध्वंसनाय पुष्पम् नि० स्वाहा मैं क्षुधा रोग से व्याकुल हूँ चारों गति में भरमाया हूँ। जग के सारे पदार्थ पाकर भी तृप्त नहीं हो पाया हूँ॥ नैवेद्य समपित करता हूँ यह क्षुधा रोग मेटो स्वामी । हे पंच ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् निः । मोहान्य महा अज्ञानी मैं निज को पर का कर्ता माना। मिथ्यातम के कारण मैंने निज प्रात्म स्वरूप न पहिचाना॥ मैं दोप समर्पण करता हूँ मोहान्धकार क्षय हो स्वामी। हे पंच ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि । कर्मों को स्वाला बधक रही संसार बढ़ रहा है प्रतिपल । संवर से प्राश्रध को रोकू निर्जरा सुरभि महके पल पल ॥ मैं धूप चढ़ाकर अब पाठों कर्मों का हनन करू स्वामी । हे पंच ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो अष्ट कर्म दहनाय घूपम् निर्वपामीति स्वाहा
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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