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________________ १२] जैन पूजांजलि जिनेन्द्र देव के बताये मार्ग पर चलना ही मच्ची विनय है। निज आत्म तत्व का मनन करूं चितवन करूं निज चेतन का। दो श्रद्धा ज्ञान चरित्र श्रेष्ठ सच्चा पथ मोक्ष निकेतन का ॥ उतम फल चरण चढ़ाता हूं निर्वाण महाफल हो स्वामी। हे पंच ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० जल चन्दन, अक्षत, पुष्प, दीप नैवेद्य, धूप, फल लाया हूँ। अब तक के संचित कर्मो का मैं पुञ्ज जलाने पाया हूं। यह अर्घ समर्पित करता हूँ अविचल अनर्घ पद दो स्वामी। हे पंच ॐ ह्रीं पंच परमेष्ठिभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा । * जयमाला : जय वीतराग सर्वज्ञ प्रभो निज ध्यान लीन गुणमय अपार । अष्टादश दोष रहित जिनवर अरहन्त देव को नमस्कार ॥ अविचल अविकारी अविनाशी निज रूप निरञ्जन निराकार। जय अजर अमर हे मुक्ति कन्त भगवन्त सिद्ध को नमस्कार । छतीस सुगुण से तुम मण्डित निश्चय रत्नत्रय हृदय धार । हे मुक्ति वधू के अनुरागी आचार्य सुगुरु को नमस्कार ॥ एकादश प्रङ्ग पूर्व चौदह के पाठी गुण पच्चीस धार । बाह्यान्तर मुनि मुद्रा महान श्री उपाध्याय को नमस्कार ॥ वत समिति गुप्ति चारित्र धर्म वैराग्य भावना हृदय धार । हे द्रव्य भाव संयममय मुनिवर सर्वसाधु को नमस्कार ॥ बहुपुण्य संयोग मिला नरतन जिनश्रुत जिनदेव चरण दर्शन। हो सम्यक् वर्शन प्राप्त मुझे तो सफल बने मानव जीवन ॥ निज पर का भेद जानकर मैं निज को ही निज में लीन करू। अब भेद नान के द्वारा मैं निज प्रात्म स्वयं स्वाधीन करू ॥ निज में रत्नत्रय धारणकर निज परिणति को ही पहचान । पर परणति से हो विमुख सदा निज ज्ञान तत्व को ही जानें ॥
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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