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________________ जन पूजांजलि देव-शास्त्र गुरु का सच्चा श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये पूर्णाम् निर्वपामीति स्वाहा। देव शास्त्र गुरु के वचन भाव सहित उरधार । मन वच तन जो पूजते वे होते भवपार । इत्यार्शीवाद: जाप्य-ॐ श्री ह्रीं श्री देव शास्त्रा गुरुभ्यो नमः श्री पंचपरमेष्ठी पूजन प्ररहन्त, सिद्ध, आचार्य नमन, हे उपाध्याय हे साधु नमन । जय पंच परम परमेष्ठी जय, भव सागर तारणहार नमन। मन वच काया पूर्वक करता हूं शुद्ध हृदय से आह्वानन् । मम हृदय विराजो तिष्ठ तिष्ठ सन्निकट होउ मेरे भगवन् ॥ निज आत्म तत्व की प्राप्ति हेतु ले अष्ट द्रव्य करता पूजन। तुव चरणों की पूजन से प्रभु निज सिद्ध रूप का हो दर्शन ॥ ॐ ह्रीं अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु पंच परमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर संवोषट् । ॐ ह्री अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाय्याय, सर्वसाधु पंच परमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ, तिष्ठ, ठः ठः । ॐ ह्री अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु पंच परमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहितों भव भव वषट । मैं तो अनादि से रोगी हूं उपचार कराने आया हूँ । तुम सम उज्ज्वलता पाने को उज्ज्वल जल भरकर लाया हूँ॥ मैं जन्म जरा मृतु नाश करूं ऐसी दो शक्ति हृदय स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु भव दुख मेटो अन्तरयामी ॥ ___ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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