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________________ १२६] जैन पूजांजलि जिया तुम निज का ध्यान करो । आर्त रोद्र दुर्ध्यान छोड़कर धर्मध्यान करो ॥ जयमाला : समयसार के ग्रन्थ की महिमा अगम अपार । निश्चय नय भूतार्थ है अभूतार्थ व्यवहार ॥ दुर्नय तिमिर निवारण कारण समयसार को करूं प्रणाम। हूं अबद्धस्पृष्ट नियत अविशेष अनन्य मुक्ति का धाम ॥ सप्त तत्व अरु नव पदार्थ का इसमें सुन्दर वर्णन है । जो भूतार्थ प्राश्रय लेता पाता सम्यक् दर्शन है। जीव अजीव अधिकार प्रथम में भेदज्ञान की ज्योति प्रधान । १"जो पस्सदि अप्पांण णियवं," हो जाता सर्वज्ञ महान ॥ कर्ता कर्म अधिकार समझकर कर्ता बुद्धि विनाश करूं। २"सम्मइंसण णाणं एसो" निज शुद्धात्म प्रकाश करूं। पुण्य पाप अधिकार जान दोनों में भेव नहीं मानें । ये विभाव परणति से हैं उत्पन्न बंधमय ही जानें ॥ ३"रत्तो बंधदि कम्म," जान, उर विराग ले कर्म हरू। राग शुभाशुभ का निषेध कर निज स्वरूप को प्राप्त करूं। मैं पाश्रव अधिकार जानकर राग द्वेष अरु मोह हरू । भिन्न द्रव्य आश्रव से होकर मावाश्रव को नष्ट करूं। मैं संवर अधिकार समझकर संवरमय ही भाव करूं। ४"अप्पाणं झायंतो" दर्शन ज्ञानमयी निज भाव वरू॥ (१) स. सा. १५ - जो अपनी आत्मा को. नियत देखता है... (२) स. सा. १४४-....सम्यक दर्शन ज्ञान ऐसी संज्ञा मिलती है... (३) स. सा. १५०-....रागी जीव कर्म बांधता है.... (४) स. सा. १८६-... आत्मा को ध्याता हुआ...
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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