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________________ जैन पूजांजलि [१२५ नर से अर्हन्त सिद्ध हो त्रैलोक्य पूज्य अविनाशो । संसार विजेता होगा जिसने निज ज्योति प्रकाशी ।। पुण्य पाप के मोह जाल में बढ़ी सदा भव की उलझन । संवरभाव जगा उर में तो, भव समुद्र का हुआ पतन । समय० ___ ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि । काम भोग बन्धन की कथनी सुनी अनन्तों बार सघन । चिर परिचित जिन श्रुत अनुभूति न जागी मेरे अन्तर्मन ॥ ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय कामवाण विध्वंसनाय पुप्पम् नि० । क्षुधा रोग को औषधि पाने का न किया है कभी यतन । आत्मभान करते ही महका वीतरागता का उपवन ॥ समय ___ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय क्षुधा रोग विनाशनाय नंवेद्यम् नि। भ्रम अज्ञान तिमिर के कारण पर में माना अपनापन । सत्य बोध होते ही पाई ज्ञान सूर्य की दिव्य किरण ॥ समय० ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय मोहान्धकार विनाशनाय दीपनि०। आर्त रौंद्र ध्यान में पड़कर पर भावों में रहा मगन । शुचिमय ध्यान धूप देखी तो धर्म ध्यान की लगी लगन ॥समय० ___ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय अष्टकर्म विध्वंसनाय धूपम् नि । भव तरु के विषमय फल खाकर करता आया भाव मरण । सिद्ध स्वपद की चाह जगी तो यह पर्याय हुई धन धन ॥ समय० ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि । आश्रव बंधभाव के कारण मिटा राग का एक न कण । द्रव्य दृष्टि बनते हो पाया निज अनर्घ पद का दर्शन ॥ समयसार का करू अध्ययन समयसार का कर मनन । कारण समयसार को ध्याऊँ समयसार को करूं नमन । ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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