SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पूजांजलि वस्त्र पुराने सदा बदलते नए वस्त्र द्वारा । उसी भाँति यह देह बदलती जन्म मृत्यु द्वारा ॥ [१२७ मैं अधिकार निर्जरा जानू पूर्ण निर्जरावंत बनूँ । पूर्व उदय में सम रहकर मैं चेतन ज्ञायक मात्र बनूं ॥ 'अपरिग्गहो अरिच्छो भणिदो" सारे कर्म झराऊँगा । मैं रतिवंत ज्ञान में होकर शाश्वत शिव सुख पाऊँगा । बंध अधिकार बंध की हो तो सकल प्रक्रिया बतलाता । बिन समकित जप तप व्रत संयमबंध मार्ग है कहलाता ॥ राग द्वेष भावों से विरहित जीव बंध से रहता दूर । ६" णिच्छपणया सिदापूण मुणिणो " अष्टकर्म करता चकचूर ॥ जान मोक्ष अधिकार शीघ्र ही नष्ट करूं विषकुम्भ विभाव । श्रात्म स्वरूप प्रकाशित करके प्रगटाऊँ परिपूर्ण स्वभाव ॥ शुद्ध श्रात्मा ग्रहरण करू मैं सर्व बंध का कर छेदन । निशङ्कत होकर पाऊंगा मुक्ति शिला का सिंहासन ॥ सर्व विशुद्ध ज्ञान का है अधिकार अपूर्व अमूल्य महान । पर कर्तृत्व नष्ट हो जाता होता शिव पथ पर अभियान ।। कर्म फलों को मूढ़ भोगता ज्ञानी उनका ज्ञाता है । इसीलिये अज्ञानी दुख पाता ज्ञानी सुख पाता है ॥ भाव भासना नौ अधिकारों से कर निज में वास करू । "मिच्छतं अविरमरणं कषाय योग" की सत्ता नाश करूँ ॥ कुन्द कुन्द ने समयसार मन्दिर का किया दिव्य निर्माण । वीतराग सर्वज्ञ देव की दिव्यध्वनि का इसमें ज्ञान ॥ (५) स. सा. २१०-११-१२-१३- ... अनिच्छुक को अपरिगृही कहा हैं .... (६) स. सा. २७२ - ... निश्चय नयाश्रित मुनि मोक्ष प्राप्त करते हैं... (७) स. सा. १६४ - ... मित्थ्यात्व अविरति कषाय योग ये आश्रव है..
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy