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________________ ७६ जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन कुबुद्धि जैसे पात्रों के माध्यम से प्रबन्ध का रूप देने का प्रयास किया है । कथानक में शिथिलता का दोष दिखायी देता है । काव्य का मुख्य उद्देश्य सुबुद्धि द्वारा चेतन को अपने मूल स्वरूप को पहचानने का संदेश देना है ।' यहाँ नारी पुरुष की पथ-प्रदर्शिका है और उसमें उसकी भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण है । 'शत अष्टोत्तरी' की भाषा अलंकारमयी प्रौढ़ ब्रजभाषा है । उसके मध्य में केवल दो-चार छन्दों में फारसी अरबी के शब्दों के बहुल प्रयोग के साथ खड़ी बोली का रूप संवारा गया है । समग्र काव्य की भाषा का लालित्य एवं माधुर्य अपनी समता नहीं रखता । वर्णिक और मात्रिक, दोनों प्रकार के कवित्तों का पूरे काव्य में अत्यन्त सफल प्रयोग हुआ है । १. २. सुनो जो सयाने नाहु देखो नैकु टोटा लाहु, कौन विवसाहु जाहि ऐसें लीजियतु है । दश द्योस विर्ष सुख ताको कहो केतो दुख, परिकें नरकमुख कोलों सीजियतु है || तो काल बीत गयो अजहू न छोर लयो, कहू तोहि कहा भयो ऐसे रीझियतु है । आपु ही विचार देखो कहिवे को कौन लेखो, आवत परेखो तातें कह्यो कीजियतु है || -शत अष्टोत्तरी, पद्य १६, पृष्ठ ११ । नाहक विराने तांई अपना कर मानता है, जानता तू है कि नाही अन्त मुझे मरना है | केतेक जीवन पर ऐसे फैल करता है, तेरा पूरा परना है ॥ साथ लगे, तिनो को फरक किये काम तेरा सरना है । सुपने से सुख में पंज से गनीम तेरी उमर के पाक वे ऐब साहिब दिल बीच बसता है, तिसको पहिचान बे तुझे जो तरना है ॥ -शत अष्टोत्तरी, पद्य ६१, पृष्ठ २२ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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