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________________ परिचय और वर्गीकरण ७५ राजकुमार नेमिनाथ विवाह की भामर पड़ने से पूर्व ही वैराग्य का संकल्प ले चुके हैं और अजेय सेनानी की भाँति अन्त तक तपस्या-पथ पर अडिग रहते हैं । अनाश्रित राजुल का हृदय विरहोच्छ वासों से फटने लगता है, परन्तु वह विवेक को नहीं खोती है। उसका विरह पदे-पदे प्रियतम की कल्याण-कामना में तिरोहित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है । वह अपने प्रिय के सुख में सुखी रहने वाली भारतीय नारी के उच्चादर्श को प्रतिफलित करती है। रचना लयबद्ध और नादयुक्त है । शब्दों के युक्तियुक्त प्रयोग से भाषा की व्यंजना-शक्ति अमोघ है। शैली में हृदय को द्रवीभूत करने की क्षमता है। शत अष्टोत्तरी यह भैया भगवतीदास का एक सौ आठ छन्दों का कवित्त-बन्ध काव्य है । इसमें रचनाकाल नहीं दिया हुआ है, किन्तु कवि की अन्य रचनाओं के आधार पर इसे अठारहवीं शती के पूर्वार्द्ध की कृति मानना उचित है। इसकी कथा में गुम्फन का अभाव है। कवि ने चेतन, सुबुद्धि और १. धर्म की बात तो सांची है नाथ, पै जेठ में कैसे धर्म रहैगो । लूह चल सरवान कमान ज्यों, घाम पर गिर मेरु बहैगो । पक्षी पतंग सबै डर हैं, अपने घर को सब कोई चहैगो । भूष तृषा अति देह दहै तब, ऐसौ महाव्रत क्यों निबहैगो॥ -मि-राजुल बारहमासा, छन्द २४ । २. पिया सावन में व्रत लीजै नहीं, घन घोर घटा जुर आवंगी । चहुँ ओर तें मोर जु शोर करें, वन कोकिल कुहक सुनावैगी ॥ पिय रैन अंधेरी में सूझे नहीं, कछु दामिन दमक डरावेगी । पुरवाई के झौंके सहोगे नहीं, दिन में तपतेज छुड़ावैगी ॥ -नेमि-राजुल बारहमासा, छन्द ४ ॥ ३. 'ब्रह्मविलास' में (पृष्ठ ८ से ३२ तक) संगृहीत ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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