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________________ कविवर बनारसीदास जाके परभाव आगे भागे पर भाव सब । नागर नवल सुख सागर की सीम है | संवर को रूप धरें साधै शिव राह ऐसो । ज्ञानी बादशाह ताको मेरी तसलीम है || ३९ उनकी निर्भीकता और ततकालीन काव्य रचना से बादशाह बहुत प्रसन्न हुये और उनका बहुत सत्कार किया । शाहजहाँ वादशाह के दरबार में कविवर बनारसीदासजी ने बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। बादशाह की कृपा के कारण उन्हें प्रतिदिन दरबार में उपस्थित होना पड़ता था और महल में जाकर प्राय: निरंतर शतरंज खेलना पड़ती थी कविवर शतरंज के बड़े खिलाड़ी थे । बादशाह इनके अतिरिक्त किसी अन्य के साथ शतरंज खेलना पसंद नहीं करते थे । बादशाह जिस समय दौरे पर निकलते थे उस समय भी वे कविवर को साथ में रखते थे तब अनेक राजा और नवाब एक साधारण वणिक को बादशाह की बराबरी बैठा देख खूब चिढ़ते थे। उस समय कविवर ने एक दुर्धर प्रतिज्ञा धारण की थी कि मैं जिनेन्द्रदेव के सिवाय किसी के आगे मस्तक नहीं झुकाऊंगा । बादशाह ने यह बात सुनी। वे कविवर की श्रद्धा को जानते थे किन्तु उनकी श्रद्धा के इस परिणाम का उन्हें ध्यान नहीं था उन्होंने कविवर की प्रतिज्ञा की परीक्षा करने की एक युक्ति सोची वे एक ऐसे स्थान पर बैठे जिसका द्वार बहुत छोटा था । और जिसमें विना सिर नीचा किए कोई प्रवेश नहीं कर सकता था । कविवर बुलाये गए । वह द्वार पर आते ही बादशाह की चालाकी समझ गए और शीघ्र ही द्वार में पहले पैर डालकर प्रवेश कर गए । इस क्रिया से उन्हें मस्तक न झुकाना पड़ा । ·
SR No.010269
Book TitleJain Kaviyo ka Itihas ya Prachin Hindi Jain Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherJain Sahitya Sammelan Damoha
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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