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________________ पुत्र-जन्म | ४४७ पहुँचे। वहाँ अनेक आर्य और अनार्य राजाओं को विजय करके सभी राजाओं के साथ पुंडरीकपुर वापिस आये।। प्रजा ने 'धन्य है राजा वज्रजंघ जिसे ऐसे पराक्रमी भानजे मिले हैं' कहकर उनका स्वागत किया। सभी राजाओं को छोड़कर लवण और अंकुश अपनी माता सीता के पास आये और उसके चरणों में नमस्कार किया। सती अपने विजयी पुत्रों को देखकर फूली न समाई । उसने आशीर्वाद दिया -अपने पिता और चाचा के समान ही यशस्वी बनो। इस आशीर्वाद ने दोनों भाइयों को अयोध्या की स्मृति पुनः ताजा करा दी । समीप ही उपस्थित राजा वज्रजंघ से उन्होंने कहा -आपने हमें पहले जो अयोध्या जाने की स्वीकृति दी थी, अव पूरी कीजिए । इन सव राजाओं को आज्ञा दीजिए कि सेना सहित हमारे साथ जायें। -क्यों इन सबका, सेना का अयोध्या में क्या होगा? -अचकचाकर वज्रजंघ ने पूछा। -हम भी तो देखें कि निरपराधिनी माता का त्याग करने वाले हमारे पिता में कितना बाहुबल है ? सन्न रह गई सीता। उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे। बोली -उनका बाहवल तुम क्या देखोगे ? त्रिखण्डेश्वर रावण ने वैर किया तो गीदड़ की मौत मारा गया ! वे देवों से भी अजेय हैं। परम शक्तिशाली दिव्यास्त्र हैं उनके पास । -हम भी उन्हीं के पुत्र हैं माँ ! धर्म हमारे साथ है । अपने धर्मास्त्र से हम भी अजेय हैं ? -पुत्रो ! गुरुजनों के प्रति विनय करनी चाहिए। उनके
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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