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________________ ३८० | जैन कथामाला (राम-कथा) -एक स्त्री के लिए, इतने वैभव को ठोकर मार रहे हैं, आप ! दूत ने पुनः समझाने की चेष्टा की। -भूलते हो भद्र ! सीता मेरी धर्मपत्नी है और उसकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य । रावण ने अधर्म किया है। पराई स्त्री को हरण करके उसने अपनी श्वान-वृत्ति ही दिखाई है। मैं सीता को अवश्य ही वापिस लूंगा। चतुर दूत साम और दाम का प्रयोग तो कर चुका था। अब उसने दण्ड के प्रयोग का निश्चय किया। -आप सीता को वापिस तो ले ही नहीं सकेंगे; अपने प्राणों से भी हाथ धो बैठेंगे । लंकेश्वर अविजेय है और आपकी हार निश्चित । -दूत दृढ़तापूर्वक बोला___-भद्र ! हार अधर्म की होती है, पाप की होती है। रावण का मार्ग अधर्म का है। मेरी जीत सुनिश्चित है-जहाँ धर्म वहाँ जय। -नहीं ! जहाँ शक्ति वहां जय । लंकापति शक्तिसम्पन्न है। एक बार तो लक्ष्मण जीवित हो उठे हैं किन्तु अबकी वार इनकी प्राणरक्षा असम्भव ही समझिये और इनके प्राणान्त के साथ ही अपनी हार भी। दूत सामन्त के शब्द आवश्यकता से अधिक कर्कश थे। शान्तगम्भीर राम की मुख-मुद्रा भी कठोर हो गई। चेहरा तमतमा गया। लक्ष्मणजी से रहा न गया। उन्होंने दूत को फटकारते हुए कहा___-अरे अधम दूत ! तू और तेरा स्वामी हमारी शक्ति को तो जानता नहीं और व्यर्थ ही वक-बक करता जाता है। लंका के सभी वीर हमारे बन्दी हैं। रह गया अकेला रावण सो उसे तो मैं ही
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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