SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बहुरूपिणी विद्या की सिद्धि | ३८१ यमराज के पास भेज दूंगा । वहीं वह अपने कुकर्मो का फल भोगता रहेगा । जाकर कह दे अपने स्वामी से कि उसके सिर पर काल नाच रहा है । नरक का द्वार उसके लिए खुला पड़ा है । कुछ कहने के लिए रुका दूत तो लक्ष्मणजी गरजे. - तुरन्त निकल जा, यहाँ से । स्वामी की कुपित मुद्रा देखकर वानर भी उत्साहित हो गये । उन्होंने गरदन॑ पकड़कर दूत को बाहर निकाल दिया । --- दूत सामन्त ने अपनी निष्फलता और पराभव की करुण कथा लंका की राजसभा में आकर कह दी । रावण ने मन्त्रियों से पुन: पूछा- अब क्या उपाय शेष है ? - मन्त्रियों ने स्पष्ट कहा - स्वामी ! अव तो सीताजी को देने के अलावा और कोई उपाय शेष नहीं है । अभिमानी रावण को यह बात नहीं रुची । उसने सभी को विदा कर दिया और स्वयमेव ही युक्ति सोचने लगा । भय की लहर तो उसके हृदय में भी व्याप्त थी । राम के सम्मुख उसे अपनी शक्ति तुच्छ लगने लगी थी । शक्ति चुकने के बाद प्राणी को भक्ति की स्मृति आती है । रावण की भी यही दशा हुई । तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ की स्तुतिपूर्वक उसने वहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने का निश्चय किया । मनवचन - काय की शुद्धिपूर्वक उसने शान्ति जिनेश्वर की स्तुति की और बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने लगा। पति का ध्यान निर्विघ्न पूरा हो - इसलिए पटरानी मन्दोदरी ने लंका में घोषणा करा
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy