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________________ वरुण-विजय | १२७ राजा ने विद्याधरों से पूछा-कहाँ मिलेंगे कुमार पवनंजय ? अपने नगर में ही न? -नहीं राजन् ! वे तो अंजना की खोज में न जाने कहाँ-कहाँ भटक रहे होंगे। वनों में, पर्वतों में कुछ कहा नहीं जा सकता! -विद्याधरों ने बताया। ____ अव खोज प्रारम्भ हुई कुमार पवनंजय की और खोजने वाले थे अंजना और उसके पुत्र को साथ लेकर राजा प्रतिसूर्य ! एक उत्तम विमान में बैठकर तीनों वनों और पर्वतों में कुमार को खोजने लगे। भूतवन के ऊपर जैसे ही विमान पहुँचा तो अंजना की दृष्टि सर्वप्रथम प्रहसित पर पड़ी । उसने प्रसन्नता से चिल्लाकर कहा -वे रहे कुमार और उनका मित्र प्रहसित तथा मेरे श्वसुर । विद्याधर प्रतिसूर्य ने देखा तो उसे नीचे कुछ व्यक्ति दिखाई दिये। विमान नीचे भूमि पर उतरा और अंजना ने भूमि पर पाँव रखते ही श्वसुर को प्रणाम किया। आगे बढ़कर राजा प्रह्लाद ने अपने पौत्र को अंक में भर लिया। ___ पति ने पत्नी को देखा और पत्नी ने पति को। दोनों के मुख खिल गये। गुरुजनों की उपस्थिति लज्जा की दीवार बनी हुई थी अन्यथा तन भी मिल गये होते। . राजा प्रह्लाद ने प्रतिसूर्य से कहा -राजन् ! आपने मेरी पुत्रवधू को आश्रय देकर मुझ पर बड़ा उपकार किया है। . -नहीं, राजन् ! मैंने कोई उपकार नहीं किया। अंजना मेरी भानजी है तो इसे रखने में आश्रय कैसा और उपकार क्या ? पुत्री तो अपने मातुल के घर रहती ही है, उसका तो अधिकार होता है । अव आप सब लोग यहाँ क्या कर रहे हैं ? मेरे साथ नगर को चलिए।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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