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________________ सदाचार की प्रेरण 1. ६७ -दशानन शक्ति पाकर अब चाल चल गये, अपने वचन से मुकर गये। --उपरम्भा ने उपालम्भ दिया। - -नहीं देवी ! राक्षसवंशी अपने वचन का पालन प्राण देकर भी करते हैं। ___-कहाँ, मेरे साथ तो तुम छल कर रहे हो। तुम्हारे लिए मैंने पति से विश्वासघात किया और फिर भी मेरी इच्छा पूरी न हई। ---उपरम्भा के स्वर में विवशताजन्य निराशा थी। । " . दशानन ने मीठे शब्दों में कहा -देवी ! जिस समय तुम्हारी दासी को मैंने वचन दिया था तव तुमसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था किन्तु तुमने जब से मुझे विद्या सिखाई, मेरा तुम्हारा गुरु-शिष्य सम्बन्ध हो गया और गुरु के साथ काम सम्बन्ध यह धर्म और नीति दोनों ही दृष्टियों से घोर अधर्म है। अंधर्म का सेवन न मुझे करना चाहिए और न तुम्हें । उपरम्भा इन युक्तिपूर्ण वचनों का प्रतिकार न कर सकी और हाथ मलती रह गयी। राक्षसपति ने नलकुबर को भी वन्धन मुक्त कर दिया और उसे पुनः दुर्लध्यपुर के सिंहासन पर बिठा कर समझाया -भद्र ! मेरा उद्देश्य किसी का राज्य छीनना नहीं है। मैं तो इतना ही चाहता हूँ कि तुम नम्र बने रहो । यह व्यर्थ के कौतुक करके जन-साधारण को भयभीत मत करो। धर्मपूर्वक प्रजा का पालन ही राजा का कर्तव्य है। रानी उपरम्भा के अपराध को क्षमा करने की प्रेरणा देते हुए लंकेश वोला -राजन् ! गलती सवसे हो जाती है। पूर्वजन्म के तीन पापों का उदय विवेकी जनों की भी बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। तम उपरस्सा
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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