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________________ ६६ | जैन कथामाला (राम - कथा ) दशमुख एकाएक विभीषण पर बरस पड़ा- अरे ! तुमने यह कुल विरुद्ध कार्य कैसे हमारे कुल में किसी ने परस्त्री का मन में तुमने आज राक्षसकुल को कलंकित कर दिया । विभीषण ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया –आर्य ! मेरी बात शांतचित्त होकर सुन तो लीजिए । शुद्धमन वालों के धर्म विरुद्ध वचन नीति होते हैं, अधर्म नहीं । राक्षस कुल को कलंक तो अधर्म सेवन से लगेगा। पहले आप अपने कार्य को सिद्ध कीजिए । तत्पश्चात उपरंभा को संबोधं दीजिए और अधर्म सेवन से इन्कार ! यह तो आपके हाथ है, कोई बलात्कार थोड़े ही कर लेगी वह । स्वीकार कर लिया । भी ध्यान नहीं किया । राक्षसेन्द्र का कोप शान्त हो गया । उसने विभीषण की नीतियुक्त वात मान ली । तब तक कामान्ध रानी उपरम्भा स्वयं ही वहाँ आ पहुँची । उसने आशाणी विद्या रावण को दे दी और अनेक व्यन्तर देवों से रक्षित अन्य अमोघ अस्त्र भी दिये । कामाभिभूत नारी कुछ भी कर सकती है । दशानन ने अग्नि शान्त की और विभीषण ने नलकुबर को युद्ध करके सहज ही पकड़ लिया । वहाँ से रावण को सुर और असुरों से भी अजेय सुदर्शन चक्र भी प्राप्त हो गया । अब उपरम्भा ने दशानन से अपनी इच्छा पूर्ति की अभिलाषा प्रकट की । रावण ने नीतिपूर्ण गम्भीर शब्दों में समझाया --देवी ! यह कैसा अनर्थ ? तुम तो मेरी गुरु हो, माता हो !
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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