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________________ &८ | जैन कथामाला (राम-कथा) को क्षमा करो । वह कासध्वज और सुन्दरी के उत्तम और निष्कलंक कुल में उत्पन्न हुई है । उसकी पाप भावना पूर्वकृत कर्मों के उदय द्वारा प्रेरित थी । हृदय से वह सच्ची और पतिव्रता है और फिर राजन् ! 'है बड़ी अन्त में क्षमा दण्ड से न्यायी ।' राजा नलकुबर ने रावण के प्रति विनम्र होकर कहा - 'मैं आज से आपको स्वामी मानता हूँ | जैसी आपकी इच्छा वैसा ही मैं करूंगा । मुझे अव उपरम्भा पर तनिक भी क्षोभ नहीं है । रानी उपरम्भा तीव्र हार्दिक पश्चात्ताप करके शुद्ध हो ही चुकी थी । पति-पत्नी दोनों ने राक्षस भाइयों का खूब सत्कार किया और उन्हें भरे नयनों तथा गद्गद हृदय से विदा किया । नलकुवर रावण को स्वामी मानते हुए पूर्ववत् राज्य कार्य करने लगा । अब उसकी प्रजा में भयजनित नहीं वरन् प्रेमजनित शान्ति थी । रावण की सद्प्रेरणा से प्रजा को सुख-शान्ति मिली और पतिपत्नी में अपूर्व प्रेम जगा । ** - त्रिषष्टि शलाका ७१२
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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