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________________ सदाचार की प्रेरणा | ६५ रखा था। उसमें ऐसे यन्त्र लगा रखे थे कि जिनसे आकाश में अग्नि की फुलझड़ियाँ सी छूटती हुई दिखाई देती थीं। इस प्रकार रक्षा का पूरा प्रवन्ध करके नलकुबर अग्निकुमार देव के समान नगरी में सुख से रहता था। . विभीषण और कुम्भकर्ण ने यह प्रवन्ध देखा तो निराश हो गये । दुर्लध्यपुर को वास्तव में दुर्लघ्य समझकर वे कुछ दूर पीछे हटकर रावण की प्रतीक्षा करने लगे। जैसे ही रावण आया उन्होंने इस विकट परिस्थिति से उसे अवगत करा दिया। लंकेश विस्मित रह गया। क्या करना चाहिए ? किस प्रकार नलकुबर बन्दी बनाया जाय ? इन सब बातों पर तीनों भाई गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगे। उनका गम्भीर विचार-विमर्श चल ही रहा था कि एक दूती ने सैनिकों से आज्ञा लेकर उनके शिविर में प्रवेश किया। उसके आने का कारण और परिचय पूछने पर उसने बताया-- -राक्षसपति ! मैं नलकुबर की पत्नी उपरम्भा की निजी दासी हूँ। उनके हृदय में आपके प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया है। इस किले की रक्षा करने वाली आशाणी देवी है.। वह भी आप के अधीन हो जायगी और रानी उपरम्भा भी। इसके बाद आप सुदर्शन चक्र भी सिद्ध कर सकेंगे । आपको स्वीकार है। रावण तो दासी के प्रस्ताव पर विचार कर ही रहा था किन्तु विभीषण ने कह दिया-ऐसा ही होगा। दासी प्रसन्नमन चली गई। रावण को शाप दिया-'यदि आज से रावण किसी स्त्री पर बलात्कार करेगा तो उसके मस्तक के सात टुकड़े हो जायेंगे।' [वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड]
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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