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________________ को मानने वाले जैन आचार्य भी श्रौत-स्मार्त-मान्यताओं से प्रभावित होने लगे थे। जटा सिंह नन्दि (पूर्वार्ध 6 वीं शती ) ने चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को सिद्धान्तः स्वीकार नहीं किया, व्यवहार के लिए शिष्ट लोगों के द्वारा चातुर्वर्ण्य-वर्ण बनाया गया है, इस बात का वे विरोध नहीं कर सके। रविषेणाचार्य (676 ई) ने समाज में प्रचलित वर्ण-व्यवस्था को कर्म के आधार पर ऋषभदेव द्वारा किया गया विभाजन स्वीकार किया 8 । जिन सेन सूरि (क783 ई.) ने जन्मगत वर्ण-व्यवस्था को भी जैनीकरण करके स्वीकार कर लिया । उद्योतन सूरि ने शूद्र जाति में गिनी जानेवाली अनेक उपजातियों का उल्लेख किया है। तक्षशिला में शूद्रजाति में उत्पन्न धनदेव नाम का सार्थवाह पुत्र रहता था। (तम्मिगामें सुद्दजाइओ धणदेवो णाम सत्यवाह उन्तो°1)। ए. एन. उपाध्ये ने इसके लिए “सुद्वजाइओ” पाठ निर्धारित कर, धनेदव को शुद्ध जाति का माना है। किन्तु आठवीं शताब्दी में शूद्रों की स्थित को देखते हुए कहा जा सकता है कि सार्थवाह भी शूद्र हो सकते थे। अत: धनदेव को शूद्र जाति में उत्पन्न ही मानना उपयुक्त प्रतीत होता है। दशरथ शर्मा ने इस समय के शूद्रों की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा कि शूद्रों के अन्तर्गत कृषक, शिल्पी, मजदूर एवं अन्त्यज और म्लेच्छों के ऊपर के वे सभी जो किसी कारणवश श्रेष्ठ तीन जातियों में न आ जाते थे, शूद्र कहे जाते थे93 । शूद्रों की स्थिति में सुधार हो रहा था । कृषि अपनाने के कारण शूद्र वैश्य हो रहे थे तथा आर्थिक सम्पन्नता के कारण उनको सम्मान मिलने लगा था। धार्मिक और राजनैतिक स्थिति भी अच्छी हो रही थी । कुवलयमाला में उल्लिखित धनदेव का भी सार्थवाह होने के कारण सोपारक के व्यापारिक संगठन द्वारा सम्मानित किया जाना इस बात का प्रमाण है6 | उद्योतन सूरि के पूर्व हरिभद्र सूरि ने मानव जाति के दो भेद किये है- आर्य एवं अनार्य । उच्च आचार-विचार वाले गुणी-जनों को आर्य तथा जो आचार-विचार से भ्रष्ट तथा जिन्हें धर्म-कर्म का कुछ विवेक न हो उन्हें अनार्य या म्लेच्छ कहा है । ( 34 )
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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