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________________ स्त्रियां के अधिकार आपदामकरो नारी नारी नरकवर्तिनी । . विनाशकारणं नारी नारी प्रत्यक्षराक्षसी ।। इस विद्वप, पक्षपात और नीचता का क्या कोई ठिकाना है ? जिस प्रकार स्वार्थी पुरुष स्त्रियों के निन्दा सूचक श्लोक रच सकते हैं उसी प्रकार स्त्रियां भी यदि विदुपी होकर ग्रंथ रचना करती तो वे भी यों लिख सकती थी कि पुरुषो विपदां खानिः पुमान् नरकपद्धतिः । पुरुपः पापानां मूलं पुमान् प्रत्यक्ष राक्षसः ।। कुछ जैन ग्रन्थकारों ने तो पीछे से न जाने स्त्रियों के प्रति क्या क्या लिख मारा है। कहीं उन्हें विप वेल लिखा है तो कहीं जहरीली नागिन लिख मारा है। कहीं विष बुझी कटारी लिखा है तो कहीं दुर्गुणों की खान लिख दिया है । इस प्रकार लिख लिख कर पक्षपात से प्रज्वलित अपने कलेजों को ठंडा किया है। मानो इसी के उत्तर म्वरूप एक वर्तमान कवि ने बड़ी ही सुन्दर कविता में लिखा है कि वीर, बुद्ध अरु राम कृष्ण से अनुपम ज्ञानी । तिलक, गोखले, गांधी से अद्भुत गुण खानी । पुरुष जाति है गर्व कर रही जिन के ऊपर । नारि जाति थी प्रथम शिक्षिका उनकी भूपर ॥ पकड़ पकड़ उंगली हमने चलना सिखलाया। मधुर बोलना और प्रेम करना सिखलाया। राजपतिनी वेप धार मरना सिखलाया । व्याप्त हमारी हुई स्वर्ग अरु भू पर माया । पुरुष वर्ग खेला गोदी में सतत हमारी ।
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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