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________________ [७] . इस लिये धर्म में यह अनुदारता हो ही नहीं सकती कि वह किन्हीं खास प्राणियों से राग करके उन्हें तो अपना अंकशायी बनाकर उच्च पद प्रदान करदे और किन्हीं को द्वप भाव में बहाकर आत्मोत्थान करने से ही वञ्चित रक्खे । सच्चा धर्म वह होगा जिसमें जीवमात्र के आत्मोत्थान के लिये स्थान हो । प्रस्तुत पुस्तक को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि निस्सन्देह जैन धर्म एक परमोदार सत्य धर्म है-वह जीवमात्र का कल्याणकर्ता है ! धर्म का यथार्थ लक्षण उसमें घटित होता है। विद्वान लेखक ने जैन शास्त्रों के अगणित प्रमाणों द्वारा अपने विपय को स्पष्ट कर दिया है । ज्ञानी जीवों को उनके इस सत्प्रयास से लाभ उठाकर अपने मिथ्यात्व जाति मद की मदांधता को नष्ट कर डालना चाहिये । और जगत को अपने बर्ताव से यह बता देना चाहिये कि जैन धर्म वस्तुतः सत्य धर्म है और उसके द्वारा प्रत्येक प्राणी अपनी जीवन आकांक्षाओं को पूरा कर सकता है। जैन धर्म हर स्थिति के प्राणी को आत्मस्वातंत्र्य, आत्ममहत्व और आत्मसुख प्रदान करता है। जन्मगत श्रेष्ठता मानकर मनुष्य के आत्मोत्थान को रोक डालने का पाप उसमें नहीं है । मित्रवर पं० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ का ज्ञानोद्योग का यह प्रयास अभिवन्दनीय है । इसका प्रकाश मनुष्य हृदय को आलोकित करे यह भावना है । इति शम्। कामताप्रसाद जैन, एम. आर. ए. एस. ( लन्दन) सम्पादक 'वीर' अलीगंज ।
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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