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________________ इस्लाम यदि मुस्लिम जगत में भ्रातृभाव को सिरजता है तो मुस्लिमवाह्य-जगत उसके निकट 'काफिर'-उपेक्षाजन्य है । पशु जगत के लिए उसमें ठौर नहीं-पशुओं को वह अपनी आसाइश की वस्तु समझता है ! तब आज के इस्लाम बाले 'धर्म का दावा किस तरह कर सक्ते हैं, यह पाठक स्वयं विचारें। __ वैदिक धर्म इस्लाम से भी पिछड़ा मिलता है। सारे वैदिक धर्मानुयायी उसमें एक नहीं हैं ! वर्णाश्रम धर्म-रक्त शुद्धि को श्रान्तमय धारणा पर एक वेद भगवान के उपासकों को वे टुकड़ों टुकड़ों में बांट देते हैं । शूद्रों और स्त्रियों के लिए वेद-पाठ करना भी वर्जित कर दिया जाता है। जब मनुष्यों के प्रति यह अनुदारता है, तब भला कहिये पशु-पक्षियों की वहां क्या पूछ होगी ? शायद पाठकगण ईसाई मत को धर्म के अति निकट समझे ! किन्तु आज का ईसाई जगत अपने दैनिक व्यवहार से अपने को 'धर्म से बहुत दूर प्रमाणित करता है। अमेरिका में काले-गोरे का भेद, यूरोप में एक दूसरे को हड़प जाने की दुर्नीति ईसाईयों को विवेक से अति दूर भटका सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है। __सचमुच यथार्थ 'धर्म' प्राणी मात्र को समान रूप में सुखशान्ति प्रदान करता हैइसमें भेद भाव हो ही नहीं सकता ! मनुष्य मनुष्य का भेद अप्राकृतिक है ! एक देश और एक जाति के लोग भी काले-गोरे-पीले-उच्च-नीच-विद्वान-मूढ-निर्यलसबल-सव ही तरह के मिलते हैं। एक ही मां की कोख से जन्मे दो पुत्र परस्पर विरुद्ध प्रकृति और आचरण को लिए हुए दिखते है। इस स्थिति में जन्मगत अन्तर उनमें नहीं माना जा सकता । हम कह चुके हैं कि धर्म जीव मात्र का आत्म-स्वभाव (अपना २ धर्म) है।
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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