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________________ SA ANTED . लोक में तीन भावनायें कार्य करती मिलती हैं। उनके कारण प्रत्येक प्राणी (१) आत्मस्वातंत्र्य (२) आत्म महत्व भार (३) आत्मसुख की अकांक्षा रखता है। निस्सन्देह सब को स्वाधीनता प्रिय है। सव ही महत्वशाली वनना चाहते हैं और सब ही सुख शांति चाहते हैं । मनुष्येतर प्राणी अपनी अवोधता के कारण इन का स्पष्ट प्रदर्शन भले नहीं कर पाते, पर वह जैसी परिस्थिति में होते हैं वैसे में ही मग्न रह कर दिन पूरे कर डालते हैं। किन्तु मनुष्यों में उनसे विशेषता है । उनमें मनन करने की शक्ति विद्यमान है। अच्छे बुरे को अच्छे से ढङ्ग पर जानना वह जानते हैं। विवेक मनुष्य का मुख्य लक्षण है । इस विवेक ने मनुष्य के लिये 'धर्म' का विधान किया है । उसका स्वभाव-उसके लिये सब कुछ अच्छा ही अच्छा धर्म है ! उसका धर्म उसे आत्मस्वातंत्र्य, प्रात्म महत्व और आत्मसुख नसीव कराता है। किन्तु संसार में तो अनेक मत मतान्तर फैल रहे हैं और सब ही अपने को श्रेष्ठतम घोपित करने में गर्व करते हैं। अब भला कोई किस को सत्य माने ? किन्तु उनमें 'धर्म' का अंश वस्तुतः कितना है, यह उनके उदार रूप से जाना जा सक्ता है । यदि वे प्राणीमात्र को समान रूप में धर्मसिद्धि अथवा आत्मसिद्धि कराते हैं-किसी के लिए विरोध उपस्थित नहीं करते तो उन को यथार्थ धर्म मानना ठीक है । परन्तु बात दर-असल यू नहीं है।
SR No.010259
Book TitleJain Dharm ki Udarta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1936
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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