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________________ कर्पूरप्रकर, अर्थ तथा कथा सहित. १ अर्थः-(जिनः के०) नगवान (परोकेऽपि के० ) अप्रत्यक्ष होय तो पण (त्रिशुध्या के०) मन वचन कायानी युधियें करीने (ध्यातः के०) ध्यान कस्या बता (जीर्णानिधश्रेष्टिवत् के०) जीर्णनामाश्रेष्ठिनी पेठे (इष्टसिध्यै के०) वांबितनी सिदिने बापे जेम (अनगोपि के०) आकाशमा रह्यो एवो पण (विधुः के०) चश्मा जे ते ( सिंधुप्रवृध्यै के ) समुश्नी वृद्धि ने माटे तथा (कुमुदौघलक्ष्म्यै के०) कमलना उघनी शोनानेमाटे तथा (चकोरतुष्टयै के०) चकोरपदीनी तुष्टिने माटें झुं न होय ? ना होयज. आंही जीर्णश्रेष्ठीनी कथा कहे . चंपानगरीनेविपे श्रीवीरनगवान् चो मासु रह्या त्यां जीर्णश्रेष्ठी यावीने वीरनगवान कहे जे के महाराज! पारणने दिवसे मारे घेर पारणुं करवा पावजो. पनी वीरनगवान् तो पा रणाने दिवसे मिथ्यादृष्टि अनिनवश्रेष्ठीने घेर पारणुं करवा गया, तेणे आ जैनदर्शनी के एवी बुड़िये कुल्मायें करी पार| कराव्युं. तेना घरमां त्रीश कोडी स्वर्णरत्न अने रूपैयानी देवताउएं दृष्टि करी पड़ी ते नंगरना राजायें कोई एक मुनिनी पागल कह्यु के महाराज! अमारुं नगर धन्य ने जेमा श्रीवीरनगवाने पारणुं कर्तुं. पार| करावनार नाग्यवान् अनिन वश्रेष्ठी जे. त्यारें मुनियें कह्यु के हे राजा! ते शेखें तो इव्यपार| कराव्यु परंतु नावपारणुं तो जीर्णशेठे कराव्यं ने जेने प्रसादें करी ते देवता थाशे माटे नावज प्रमाण जे. एम जाणवू नाव विना सर्वे मिथ्या जाणवू ॥ १७॥ नव्योगुरुः सुरतरुर्विहितामितईि,र्यत् केवलाय कव लार्थिषु गौतमोऽनूत् ॥ तापातुरेऽमृतरसः किमु शै त्यमेव, नाप्रार्थितोऽपि वितरत्यजरामरत्वम्॥१६॥ अर्थः-(नव्यः के०) नवीन एवा (गुरुः के० ) गुरु, ते ( सुरतरुः के कल्पवृक्ष समान . वली केवा जे ? तो के ( विहितामितदिः के० ) अण याच्याथका पण प्रमाण विनानी दिना देवावाला ले ( यत् के०) जे कारण माटे (गौतमः के० ) गौतमऋषि तो (कवलार्थिषु के०) कवलनी याचना करनार, पारणार्थी तापसोने विषे ( केवलाय के० ) केवलज्ञानने माटे (अनूत के०) थाता हवा अर्थात् गौतम ऋषि कवलनी याचना क रनारने केवल ज्ञानना दातार थया (अप्रार्थितोपि के०) नहि प्रार्थना क
SR No.010250
Book TitleJain Katha Ratna Kosh Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1891
Total Pages401
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size44 MB
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