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________________ १२६ जैनकथा रत्नकोष नाग पांचमो. स्नेहोऽहत्यपि गौतमस्य गणनाऽकाले च कोशागुरोः, ग्लानिःपारदनाविते हि कनकेऽरिष्टं फलेऽनातवे॥१४॥ अर्थः-( एतानि के० ) ए ( सप्तापि के० ) सात एवां पण ( व्यस नानि के० ) व्यसनो जे , ते (पापसदनानि के० ) पापनां घर में, माटे ( वानि के०) वर्जवा योग्य डे, (यत् के०) जे कारण माटे ते व्य सन सेवनारो प्राणी (सत्कर्मापि के०) सारा कर्मने करनारो होय तो पण ( नशस्यते के० ) वखणातो नथी. ते व्यसनोनी (अत्यासेवया के० ) अ ति सेवनायें ( व्यसनं के०) दुःख (स्यात् के० ) होय. केनी पेठे ? तो के (यथा के० ) जेम (गौतमस्य के०) गौतमने (अर्हति के) अरिहंत जग वानने विपे (स्नेहोपि के०) स्नेह पण जे जे, तेने लोको व्यसनज कहे जे. (च के० ) तथा ( कोशागुरोः के० ) स्यूलिनश्ने ( अकाने के० ) अका लने विपे ( गणना के०) पूर्वमी गणना ते पण (ग्लानिः के०) व्यसन रूप थाय . तथा (पारदनाविते के०) पारासाथे अत्यंत नावना करे ला एवा ( कनके के०) सुवर्णने विपे श्यामता थाय . तथा (अनात वे के ) ऋतु विनाना समयमां उत्पन्न थयेला (फले के० ) फलने विषे (हि के०) निचे (अरिष्टं के०) अरिष्ट थाय ने. एम लोकोक्ति , तेमाटे अति सर्वत्र वर्जयेत्, एम जाणवू ॥ १० ॥ या श्लोकमां गौतम तथा स्थूलिनश्नो दृष्टांत होवाथी प्रथम गौतम गणधरनी कथा कहे . श्रीवमानस्वामीना शिष्य प्रथम गणधर श्रीगौत मस्वामी हता,हवे जेने वीरजगवाने पोताने हाथें दीक्षा आपे तेने तरत के वलज्ञान उत्पन्न थाय, परंतु गौतमगणधरने श्रीवीरनगवाननी नपर अत्यं त स्नेह होवाथी स्नेहांतरायथी केवलझान उत्पन्न थयुं नहिं,पनी वीरनग वाने पोताना निर्वाण समयने विषे देवशर्माने प्रतिबोध करवा माटे गौत मने आसन्नग्रामें मोकल्या, श्रीवीरनगवान अपापा नगरीने विषे हस्तीपा ल राजानी जीर्ण रकुक सनाने विषे रह्या, शोल प्रहर पर्यंत देशना देवा पनी कार्तिक वदि अमावास्याने दिवसें परमपदने प्राप्त थया, हवे देवशर्मा ने प्रतिबोधीने पाबा आवता देवताउना मुखथकी वीरनगवान् निर्वाणप दने प्राप्त थया, एवं सांजलीने गौतमस्वामी अत्यंतशोक करीने पनी प्रजु वैराग्य बाणी स्नेहपाशनो बंध तोडीने केवलज्ञान पाम्या.
SR No.010250
Book TitleJain Katha Ratna Kosh Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1891
Total Pages401
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size44 MB
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