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________________ ७० वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला पुनः इस द्वीप में ६४ वलयों के सूर्यों को जो संख्या है उससे दुगुने अगले समुद्र के प्रथम वलय में होंगे । पुनः ४-४ की वृद्धि से बढ़ते हुये अन्तिम वलय तक जायेंगे । वलय भी पूर्व द्वीप से दूगुने ही होंगे । इस प्रकार यही क्रम आगे के असंख्यात द्वीप समुद्रों में सर्वत्र अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप व समुद्र तक जानना चाहिये। मानुषोत्तर पर्वत से आगे के (स्वयंभूरमण समुद्र तक) सभी ज्योतिर्वासी देवों के विमान अपने-अपने स्थानों पर ही स्थिर हैं, गमन नहीं करते हैं। ___ इस प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्रों में असंख्यात द्वीप समुद्रों की संख्या से भी अत्यधिक असंख्यातों सूर्य, चन्द्र हैं एवं उनके परिवार देव-ग्रह, नक्षत्र, तारागण आदि भी पूर्ववत् एक चन्द्र की परिवार संख्या के समान ही असंख्यातों हैं। इन सभी ज्योतिवासी देवों के विमानों में प्रत्येक में १-१ जिन मंदिर है। उन असंख्यात जिन मंदिर एवं उनमें स्थित सभी जिन प्रतिमाओं को मेरा मन वचन काय से नमस्कार हो । ज्योतिर्वासी देवों में उत्पत्ति के कारण देव गति के ४ भेद हैं-भवनवासी, व्यन्तरवासो, ज्योतिर्वासी एवं वैमानिक । सम्यग्दृष्टि जीव वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होते हैं । भवनत्रिक (भवन, व्यन्तर, ज्योतिष्क देव) में उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि ये जिनमत के विपरीत धर्म को पालने वाले हैं, उन्मार्गचारी हैं, निदान
SR No.010244
Book TitleJain Jyotirloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Jain Saraf, Ravindra Jain
PublisherJain Trilok Shodh Sansthan Delhi
Publication Year1973
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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