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________________ ७१ जन ज्योतिर्लोक पूर्वक मरने वाले हैं, अग्निपात, भंभापात श्रादि से मरने वाले हैं, प्रकाम निर्जरा करने वाले हैं, पंचाग्नि आदि कुतप करने वाले हैं या सदोष चारित्र पालने वाले हैं एवं सम्यग्दर्शन से रहित ऐसे जीव इन ज्योतिष्क आदि देवों में उत्पन्न होते हैं। ये देव भो भगवान के पंचकल्याणक आदि विशेष उत्सवों के देखने से या अन्य देवों की विशेष ऋद्धि (विभूति) श्रादि देखने से या जिनबिंब दर्शन आदि कारणों से सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर सकते हैं तथा प्रकृत्रिम चैत्यालयों को पूजा एवं भगवान के पंचकल्याणक आदि में आकर महान पुण्य का संचय भी कर सकते हैं। अनेक प्रकार को अणिमा महिमा आदि ऋद्धियों से युक्त इच्छानुसार अनेक भोगों का अनुभव करते हुये यत्र4 तत्र कोड़ा आदि के लिये परिभ्रमण करते रहते हैं। ये देव तीर्थङ्कर देवों के पंच कल्याणक उत्सव में या कोड़ा प्रादि के लिये अपने मूल शरीर से कहीं भी नहीं जाते हैं। विक्रिया के द्वारा दूसरा शरीर बनाकर ही सर्वत्र जाते प्राते हैं । यदि कदाचित् वहां पर सम्यकत्व को नहीं प्राप्त कर पाते हैं तो मिथ्यात्व के निमित्त मे मरण के ६ महिने पहले से ही अत्यंत दुःख होने से प्रार्तध्यान पूर्वक मरण करके मनुष्य गति में या पंचेन्द्रिय तिर्यन्वों में जन्म लेते हैं। यदि अत्यधिक संक्लेश परिणाम से मरते हैं तो एकेन्द्रिय - पृथ्वी, जल, वनस्पतिकायिक आदि में भी जन्म ले लेते है ।
SR No.010244
Book TitleJain Jyotirloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Jain Saraf, Ravindra Jain
PublisherJain Trilok Shodh Sansthan Delhi
Publication Year1973
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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